बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Sunday 22 April 2018

अचला पर ये कैसा बेबसी का असर है

थकी थकी सी नज़र है
और सुस्त साँसों का सफ़र है
पल प्रतिपल बढ़ते तम का डर है
अचला पर ये कैसा बेबसी का असर है

मुरझा गयी उसपर सजी सब कलिया
रौंद गया कोई उसकी महकती बगिया
आज ढल सा गया है उसका निखरा रूप
जाने कहाँ खो गया उसका सुंदर स्वरूप

कभी बन ठन कर इतराती थी
पंछी संग चचहाती थी
कुदरत संग खिलखिलाती थी
बस सँवर कर खुशियों को गुनगुनाती थी

आज तो जैसे लुट गयी है
अश्कों का अँखियों में सागर भरी है
रोगी बुढ़िया सी बिखरी पड़ी है
देख दर्द उसका कुदरत भी तड़प गयी है

फ़िर भी चुप है वो जिसके कर्मों का ये वर है
देखकर भी बदहाली मनु की अंधी नज़र है
उसी की गुस्ताखियो का ये भयावह मंज़र है
अचला पर ये कैसा बेबसी का असर है
 जुल्म को सहकर ये धरती विह्वल है
अचला पर ये कैसा बेबसी का असर है

                                    #आँचल 

9 comments:

  1. वाह!!! बहुत खूब
    सत्य का दर्पण दिखाती सुन्दर अभिव्यक्ति

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    1. अति आभार दीदी जी प्रति उत्तर में देरी के लिए क्षमा

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  2. 👏👏👏👏👏👏👏कड़वा सत्य उदबोधन शब्दों मैं है पीर नारी प्रथ्वी एक हो गई कौन किसको बधाये धीर !

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    1. खूब समझा आपने हमारे शब्दों को हार्दिक आभार उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए दीदी जी

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    2. प्रति उत्तर में देरी के लिए क्षमा
      शुभ दिवस

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  3. धरा का वास्तविक दर्द बयां करती कविता..👏👌

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया दीदी जी

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  4. शानदार आंचल जी बेहतरीन भावों का सुंदर संगम दर्द जैसे स्वयं शब्द बन गये ।
    बहुत बहुत सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद दीदी जी आपको पसंद आयी सार्थक हो गयी प्रति उत्तर में देरी के लिए क्षमा शुभ दिवस

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