बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Sunday 23 July 2023

मेरा संकल्प

एक छत के नीचे,
चार दीवारों के बीच,
माता-पिता की दी हुई
ज़मीन पर खड़ी मैं 
कुछ खिड़कीयों के सहारे 
थोड़ा ही सही 
इस संसार को 
देखने-समझने का प्रयास कर रही हूँ।

आह! यह क्या देख रही हूँ?
कहीं कोई शोर करके सो रहा है,
कहीं कोई मौन रो रहा है,
कोई काट कर अपना ही पेट 
अपनी ' भूख ' मिटा रहा है,
कोई नंगे पांव ही दौड़ चला 
छालों को करा के चुप,
कोई ए. सी. गाड़ी में बैठा 
कहता है ' उफ़ ',
ये कैसा है बाज़ार सजा?
यहाँ सबकुछ तो बिक रहा!
धर्म से ईमान तक,
देह से कमान तक।

ओह! यह कैसा 
भयानक मंज़र है?
क्या यह कोई 
विकसित जंगल है?
थोड़ा ही सही 
देखकर यह दृश्य 
कुछ विचलित हो गई हूँ।
नारायण के आगे 
करबद्ध संकल्प ले रही हूँ -
" एक दिन अपने ज्ञान
और अनुभव की वह ज़मीन 
विकसित करूँगी जहाँ खड़ी 
होकर इस शोक - विलाप के 
मंज़र को सुख - संतोष में परिणत करूँगी।"

बस इस संकल्प पूर्ति हेतु 
एक बार यह दरवाज़ा खोल लूँ 
और इसबार थोड़ा सा नही,
देख - समझ लूँ यह पूरा संसार,
ताकी कोई टोक न सके 
कि तुमने देखा नही अभी 
पूरा संसार।

यह तो हुई कुछ बरस पूर्व की बात,
आज तो कुछ बदले-से हैं हालात।
तब नादान थी कुछ, 
आज थोड़ी सयानी जो हुई हूँ
है जो बाधा संकल्प में 
उसे भाँप रही हूँ।

कहीं ठहर न जाएं ये पाँव मेरे 
संबंधों के मोह में,
या कोई बेड़ी न डाल दे 
इन पाँव में यह समाज,
कहीं कोई स्वयं यह दरवाज़ा 
खोलकर न आ जाए 
और पहनाकर लाल चूड़ियाँ 
अपनी चौखट पार करवाए।

उफ़! तब क्या करूँगी मैं?
क्या मान लूँगी उस घर को 
अपना सीमित संसार?
और क्या बन जाऊँगी 
अस्तित्वहीन-सी मैं एक ज़िंदा लाश?
और यहाँ इस दरवाज़े के भीतर 
यूँही छूट जाएगा 
मेरे अस्तित्व का कारण 
मेरा 'संकल्प'!

#आँचल