हाँ डर है मुझे
इस बदलते कायनात से
मरते जन के ज़स्बात से
बिखरते सबके अरमान से
इस बदनसीब जहान से
हाँ डर है मुझे मानवता के कब्रिस्तान से
हाँ डर है मुझे कलयुग के इस अहसास से
जब मंडप पे लगते हैं फेरे
दिखावटी सौगात के
और गरीब की बेटी कहीं
जलती रिवाजों की आग में
तब डर है मुझे
इस लालच में अंधे समाज से
कतरे जाते हैं पंख कहीं
नन्हे चिड़ियों के अरमान के
और झुलस जाते हैं कोमल हाथ
मजदूरी की ताप से
तब डर है मुझे
भविष्य के बिगड़ते हालात से
जब खून पसीने से सिंचते
खेत और खलिहान कई
पर फ़िर भी कर्जो में डूबकर
फाँसी पर लटके किसान कई
तब डर है मुझे
ऊंचे दफ्तर में बैठे हैवानों से
जब एक बैठे ए. सी. गाड़ी में
और ज़ेब गरम हो नोटों से
दूजा चौराहे पर भटके
लिए कटोरा हाथों में
तब डर है मुझे
औकात के बड़े फ़ासले से
जब बढ़ती आबादी के संग
बढ़ते उद्योग और कारख़ाने
और बढ़ते दामों के संग
जाती कुदरत के बच्चों की जान
तब डर है मुझे
होते प्रकृति के विनाश से
जब बच्चे खड़े हो सिर उठाए
और झुके गर्दन माँ बाप की
वृद्धाश्रम में हो निवास ईश्वर का
और तनहा कटे बुढ़ापा
तब डर है मुझे
संस्कार हीन भारत से
जब डगर डगर पे खतरे हों
हर घर दुःशासन पसरें हों
तो लाज बचाती हर बिटिया
वर माँगे ना जनमे कोई बिटिया
तब डर है मुझे
आज़ाद घूमते दरिंदों से
जब जाती के नाम लुटे अधिकार
काबीलीयत पर है ग्रहण अपार
राजनीति में हुआ बवाल
आरक्षण की जब लगी आग
तब डर है मुझे
की जल ना जाए कोई मति होशियार
जब धर्म का रंग बदल गया
कर्तव्य से संप्रदाय हुआ
फ़िर चली मजहबी आँधी
और हिंदू मुस्लिम में फूट पड़ी
तब डर है मुझे
बँटते हुए भगवान से
हाँ डर है मुझे स्वार्थी इंसान से
हाँ डर है मुझे मानव में मरते इंसान से
हाँ डर है मुझे
हर रोज़ उठते तूफ़ान से
चूर होते सभी अरमान से
बेबसी के हालात से
बढ़ते हुए शैतान से
हाँ डर है मुझे मानवता के कब्रिस्तान से
हाँ डर है मुझे कलयुग के इस अहसास से
हाँ डर है मुझे हर पल हर क्षण अँधेरे में डूबते इस जहान से
हाँ डर है मुझे
डर है मुझे
डर है मुझे
#आँचल
इस बदलते कायनात से
मरते जन के ज़स्बात से
बिखरते सबके अरमान से
इस बदनसीब जहान से
हाँ डर है मुझे मानवता के कब्रिस्तान से
हाँ डर है मुझे कलयुग के इस अहसास से
जब मंडप पे लगते हैं फेरे
दिखावटी सौगात के
और गरीब की बेटी कहीं
जलती रिवाजों की आग में
तब डर है मुझे
इस लालच में अंधे समाज से
कतरे जाते हैं पंख कहीं
नन्हे चिड़ियों के अरमान के
और झुलस जाते हैं कोमल हाथ
मजदूरी की ताप से
तब डर है मुझे
भविष्य के बिगड़ते हालात से
जब खून पसीने से सिंचते
खेत और खलिहान कई
पर फ़िर भी कर्जो में डूबकर
फाँसी पर लटके किसान कई
तब डर है मुझे
ऊंचे दफ्तर में बैठे हैवानों से
जब एक बैठे ए. सी. गाड़ी में
और ज़ेब गरम हो नोटों से
दूजा चौराहे पर भटके
लिए कटोरा हाथों में
तब डर है मुझे
औकात के बड़े फ़ासले से
जब बढ़ती आबादी के संग
बढ़ते उद्योग और कारख़ाने
और बढ़ते दामों के संग
जाती कुदरत के बच्चों की जान
तब डर है मुझे
होते प्रकृति के विनाश से
जब बच्चे खड़े हो सिर उठाए
और झुके गर्दन माँ बाप की
वृद्धाश्रम में हो निवास ईश्वर का
और तनहा कटे बुढ़ापा
तब डर है मुझे
संस्कार हीन भारत से
जब डगर डगर पे खतरे हों
हर घर दुःशासन पसरें हों
तो लाज बचाती हर बिटिया
वर माँगे ना जनमे कोई बिटिया
तब डर है मुझे
आज़ाद घूमते दरिंदों से
जब जाती के नाम लुटे अधिकार
काबीलीयत पर है ग्रहण अपार
राजनीति में हुआ बवाल
आरक्षण की जब लगी आग
तब डर है मुझे
की जल ना जाए कोई मति होशियार
जब धर्म का रंग बदल गया
कर्तव्य से संप्रदाय हुआ
फ़िर चली मजहबी आँधी
और हिंदू मुस्लिम में फूट पड़ी
तब डर है मुझे
बँटते हुए भगवान से
हाँ डर है मुझे स्वार्थी इंसान से
हाँ डर है मुझे मानव में मरते इंसान से
हाँ डर है मुझे
हर रोज़ उठते तूफ़ान से
चूर होते सभी अरमान से
बेबसी के हालात से
बढ़ते हुए शैतान से
हाँ डर है मुझे मानवता के कब्रिस्तान से
हाँ डर है मुझे कलयुग के इस अहसास से
हाँ डर है मुझे हर पल हर क्षण अँधेरे में डूबते इस जहान से
हाँ डर है मुझे
डर है मुझे
डर है मुझे
#आँचल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 16 अप्रैल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी बिलकुल आऊँगी
Deleteअति आभार सुप्रभात
आंचल जी लाजवाब अद्भुत सारे अनैतिक और अवांछित कर्मो का एक भयानक डर आपकी रचना चित्र उकेर रही है। बधाई इतनी शानदार अभिव्यक्ति के लिए।
ReplyDeleteबस जो डर मन में था उसी को बयाँ करने का प्रयास किया है
Deleteआपकी शुभकामनाओं के लिए और सराहना के लिए आभार दीदी जी
सुप्रभात
बहुत ही मार्मिक
ReplyDeleteअति आभार सुप्रभात
Deleteवाह!!!
ReplyDeleteसत्य का दर्पण दिखाती सुन्दर अभिव्यक्ति
अति आभार दीदी जी आपकी सराहना उत्साह बढ़ाती है
Deleteसुप्रभात
वाह बहुत खूब
ReplyDeleteधन्यवाद राधा जी सुप्रभात
Deleteवाह्ह्ह...बेहद सारगर्भित हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति प्रिय आँचल...👌👌
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद श्वेता दीदी जी आपकी सराहना ने मेरी रचना का मान बढ़ा दिया लिखना सफल हुआ
Deleteसुप्रभात 🙇
वाह!! लाजवाब!!
ReplyDeleteधन्यवाद शुभ दिवस
Deleteसत्य का दर्पण दिखाती हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ अंचल पांडेय जी
ReplyDeleteआज मैं आपके ब्लॉग पर आया और ब्लोगिंग के माध्यम से आपको पढने का अवसर मिला
हमारे blog पर आपका स्वागत है आदरणीय भास्कर जी
Deleteउत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार 🙇