बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Saturday 16 June 2018

हे सीप तुझीसे पयोधि कथा


बैठी साहिल की खामोशी के साथ
सुन रही थी जलधि का शोर
कोशिश थी मेरी जानने की
क्यू सागर है इतना दंभ विभोर
तभी लहरों ने मन को भाँप लिया
और मुझको भी अपने साथ लिया
फिर छोड़ दिया गहरे सागर में
मैं उतर गयी जल के भूतल पे
फिर वही कहीं से परियाँ आयी
साथ अपने एक एक सीप सब लायी
देखकर आँखें अचरज में थी
जलपरियों के मैं बीच खड़ी थी
तभी उनमें से एक ने कदम बढ़ाया
सीप को मेरे हाथ थमाया
फिर प्यार से सिर पर हाथ फिरा कर
उदधि का अद्भुत एक राज़ बताया
जो देख रही हो ये साफ़ समंदर
सारी है इन सीपों की माया
जैसे धरती पर तरूवर की छाया
बस वही स्थान यहाँ सीपों ने पाया
जैसे प्रदूषण से करता वृक्ष रोकथाम
कुछ ऐसा ही जल में सीपों का काम
जो खींच कर खुद में दूषित कण को
जल को स्वच्छ बनाता है
घटा के जल से नाइट्रोजन को ऑक्सीजन का दर बढ़ाता है
सुनकर सब हैरान मैं थी
सीपों की कथा से अनजान जो थी
परियों ने फिर आगे बतलाया
एक करिश्मे से मुझको अवगत कराया
 खोला मुख अपना उस सीप ने था
थामा जिसको मैंने हाथ में था
देख रही हो ये सुंदर काया
रत्नों में नाम है जिसने पाया
जलधि का ही एक अंश है ये
सीप गर्भ में जो था आया
माँ सा सीप ने इसको पाला
प्रेम से अपने इसको दमकाया
सहकर जाने कितनी पीड़ा
सीप ने इसको मोती बनाया
ये सत्य नही की जलधि को खुदपर ही अभिमान है
ये तो सीप का प्रेम त्याग है जिसपर सागर को इतना गुमान
सीपों के अस्तित्व से ही जीवित ये जलधाम है
जलचर के लिए तो जैसे बस सीप ही भगवान है
जब जान गयी सीपों की गाथा
आदर में झुक गया मेरा भी माथा
हे सीप तू तो वरदान है
तेरी महिमा को मेरा प्रणाम है
वंदन को फिर मैंने मूँदी आँख
खोला तो फिर थी मैं साहिल के साथ
पर हाथ में मेरे वो सीप भी था
जिसमें रखा सुंदर एक मोती था
जिसकी दमक पर साहिल भी बोल उठा
हे सीप तुझीसे पयोधि कथा

                                      #आँचल                      

Saturday 9 June 2018

सच का ताबीज़

सूनी सी हो चली है
धर्म की दहलीज़
जबसे जमाने ने पायी
झूठ की ताबीज़
ओढ़ कर हिजाब बैठा
सच हुआ नाचीज़
बढ़ चला बेखौफ सा
फरेब का तासीर
बेच कर ईमान सारा
जग हुआ अमीर
देखकर दुख का नजारा
कह रहा आमीन
लूट कर खाना हुआ है
आज की तहज़ीब
बाँट कर खाना कहाँ अब
होता है लज़ीज़ 
नफरतो को पालना
जिसकी है तमीज़
कर रहा ढकोसला
बनकर वो फ़क़ीर
दया,धर्म ये भावरत्न
अब होते नही नसीब
इंसानियत को मारके जबसे
अधर्म हुआ रईस
पर भूल मत दस्तूर उसका
जो लिखता है तक़दीर
अधर्म की हर बरकत के आगे भी
होगी बस धर्म की जीत
बदनसीब होगी फ़िर से
झूठ की लकीर
बाँधेगा ज़माना फ़िर से
सच का वही ताबीज़
                               #आँचल

Saturday 2 June 2018

बहरुपी कलयुग

कोई दुनिया भर के श्रृंगार तले
आइने को धोका देता है
सब रंगो में रंग कर भी
जाने किस रंग को रोता है
कोई विधवा सा सब कुछ खो कर
बिन रंगों के जीता है
फिर भी ज़िंदगी से अपनी
शिकवा नहीं कोई रखता है
कोई अंधा समझ दुनिया को
हर पल ठगी बस करता है
पर भूल गया कि कोई ऊपर से
नज़रें बस उस पर रखता है
कोई जाल बिछा कर अपनेपन का
लिलार तिलक से सजाता है
फ़िर ढोंगी वही समय देखकर
कालिख मुँह पर मल जाता है
ऐसे ही बहरूपी से लाखों
कल्युग है अपना भरा पड़ा
झूठ,लोभ और बैर कथा से
है इसके पाप का घड़ा भरा
पर डर मत तू ए बंदे तबतक
जबतक तू सच के साथ खड़ा
जो साथ निभाए दृढ़ता से सच का
भगवन का उसको साथ मिला

                              -आँचल