Thursday, 12 June 2025
रौशनी लिखो तो माने
हाँ,
लिखी होंगीं तुमने
रातों को जागकर
हज़ारों कविताएँ
पर घुप अँधेरे में
ज़रा एक बार
'रौशनी' लिखो
तो माने।
#आँचल
Thursday, 5 June 2025
अँधेरे के साम्राज्य में
आज फिर रात हो गई
'दिन' को ढोते-ढोते!
आहिस्ता कंधों से उतार
उसे पटक दिया मैंने भू पर
फिर माथे से ढुलकते
तारों को समेटा आँचल में
गहरी श्वास भरी
और देखा नज़र उठाकर
आकाश की ओर
कि माँग लूँ उधार कुछ तारे
और बाँध लूँ
अपने आँचल में कसकर
इस आस में कि कल
जब बुझ जाएँगे
आशा के सब दीपक,
क्रान्ति की सब मशालें
और शहीद हो जाएँगे
सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते
तब शायद इन्हीं तारों में से
फूट पड़ें नए भोर की किरणें
पर अफ़सोस कि आज
आकाश का आँचल भी सूना हो गया
'अँधेरे के साम्राज्य में।'
#आँचल
हर रोज़ मेरे भीतर
हर रोज़ मेरे भीतर
एक कविता जन्म लेती है
और हर रोज़ अपने भीतर
मैं तोड़ती हूँ एक कविता का दम
नहीं,और कुछ नहीं बस
कुछ वक़्त का है सितम
कुछ रंग घुले हैं कम
और कुछ ताज़ा ही रह गए
बीते ज़ख़्म।
#आँचल
Friday, 11 April 2025
कोई जुगनू है क्या?
कोई जुगनू है क्या?
जो इस तूफ़ानी रात के अँधेरे को
चीरने को बेताब हो!
मैं आज की रात
स्वप्न के बाज़ार में ठगना नहीं
उन्हीं जुगनुओं की महफ़िल में
बिकना चाहती हूँ।
#आँचल
Wednesday, 2 April 2025
एक चिड़िया थी
एक चिड़िया थी
जो समुद्र की गहराई
में डूबना चाहती थी,
एक मछली थी
जो आकाश की ऊँचाई से
इस संसार को देखना चाहती थी
चाहतें इनकी ग़लत न थीं
पर फिर भी
लीक से हटकर तो थीं
बस इसीलिए
इनका जीवन एकाकी रहा
अपनों की फ़ेहरिस्त में शेष
'संघर्ष' ही एक साथी रहा।
#आँचल
Friday, 7 February 2025
सोने का वक़्त हो चला है
सोने का वक़्त हो चला है
पर अभी नींद का आँखों में आना शेष है,
'आज' आज ही बीत गया कल की तैयारी के साथ,
न आज में कुछ विशेष था और
न कल ही में होगा कुछ विशेष
फिर भी जगना होगा
फिर से उसी सूरज के साथ,
कोई मंज़िल नही है मेरी
जहाँ पहुँचने की जल्दी हो मुझे
फिर भी भागना होगा
तेज़ और तेज़
एक अंतहीन सड़क पर,
क्यों और किसलिए का जवाब
मुझे पता नहीं
और शायद इन जवाबों को मुझे
अब ढूँढना भी नहीं
हाँ,पर अब सोना है मुझे
और गुज़ारनी है यह रात
क्योंकि कल फिर
एक अंतहीन सड़क पर मेरा भागना शेष है।
#आँचल
जीवन
शाख़ से झड़ते पत्तों ने जब
नई कोपलों को फूटे देखा
तो यही सोचा कि अब
धीरे-धीरे इन्हें भी जीना है
जीवन का हर रंग,
हर पहलू को समझना है,
जानना है कि
संघर्षों की धूप में ही
अपनों की छाँव मिलती है,
घिरते हैं बादल जब
और घोर अंधकार छाता है
तब जाकर किसी चातक की
प्यास बुझती है,
खिलती हैं कलियाँ कहीं
तो कहीं पतझड़ आता है,
रात,प्रभात और फिर रात
रुका है कौन-सा समय?
सब आकर बीत जाता है
बालपन की चंचलता
यौवन का शृंगार,
सफलता का माद,
प्रेम,विरह और अवसाद
सब रह जाता है भीतर कहीं
बनकर एक 'याद'
जो रहता है अंतिम क्षण तक साथ
पर यह भी छूट जाता है
हमारे झड़ने के साथ
जैसे कल ये नई कोपलें
भी झड़ जाएँगी
जीवन के हर पहलू को
समझने के बाद।
#आँचल
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