बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Sunday, 27 July 2025

झूठ की ख़रीद

 

दिखाई और सुनाई देने वाला सत्य 

सदा एक आश्चर्य-सा लगता है

क्योंकि झूठ 

अब बहुत आम हो चुका है 

फिर भी हम ख़रीदने तो 

झूठ ही जाते हैं।

#आँचल 

Friday, 25 July 2025

भूख



इंसान की भूख बहुत बड़ी है।
इतनी बड़ी कि वह 
पहले अपने हक़ का खाता है 
फिर दूसरों के हक़ का 
फिर भी भूख नहीं मिटती तो 
इंसान इंसान को खाता है 
फिर इस संसार को खाता है 
और खाते-खाते 
एक दिन वह 
ख़ुद को भी खा जाता है 
और भूख समाप्त हो जाती है।
#आँचल 

Saturday, 19 July 2025

रात

'सुबह जल्दी उठना है।'
इस चिंता को ओढ़कर 
सो जाने वाली रात 
काश!रागों में डूबते,
कविताओं में गोता लगाते,
और कहानियों के पृष्ठों को 
पलटते हुए बीत जाती।
#आँचल 

झूठ

 



क्या लिखूँ?

लिखने को तो पूरा संसार है,

अनंत ब्रह्मांड है,

पर सब झूठ है!

और झूठ को बारंबार 

कितने भी प्रकार से लिख दूँ

लिखा तो झूठ ही।

सत्य!

हा.. हा.. हा..

जो सत्य है वह 

यह संसार न जानता है 

न जानने की इच्छा रखता है 

और इच्छा से चलने वाले 

इस संसार में 

'इच्छा' के विरुद्ध का सत्य 

लिखकर भी क्या ही करूँ?

सब फिर झूठ हो जाएगा।

#आँचल


Thursday, 12 June 2025

रौशनी लिखो तो माने

हाँ,
लिखी होंगीं तुमने 
रातों को जागकर 
हज़ारों कविताएँ 
पर घुप अँधेरे में 
ज़रा एक बार 
'रौशनी' लिखो 
तो माने।
#आँचल

Thursday, 5 June 2025

अँधेरे के साम्राज्य में

 



आज फिर रात हो गई 

'दिन' को ढोते-ढोते!

आहिस्ता कंधों से उतार 

उसे पटक दिया मैंने भू पर 

फिर माथे से ढुलकते 

तारों को समेटा आँचल में 

गहरी श्वास भरी 

और देखा नज़र उठाकर 

आकाश की ओर 

कि माँग लूँ उधार कुछ तारे 

और बाँध लूँ 

अपने आँचल में कसकर 

इस आस में कि कल 

जब बुझ जाएँगे 

आशा के सब दीपक,

क्रान्ति की सब मशालें 

और शहीद हो जाएँगे 

सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते 

तब शायद इन्हीं तारों में से 

फूट पड़ें नए भोर की किरणें 

पर अफ़सोस कि आज 

आकाश का आँचल भी सूना हो गया 

'अँधेरे के साम्राज्य में।'

#आँचल 

हर रोज़ मेरे भीतर

 



हर रोज़ मेरे भीतर

एक कविता जन्म लेती है

और हर रोज़ अपने भीतर 

मैं तोड़ती हूँ एक कविता का दम 

नहीं,और कुछ नहीं बस 

कुछ वक़्त का है सितम 

कुछ रंग घुले हैं कम 

और कुछ ताज़ा ही रह गए

बीते ज़ख़्म।

#आँचल 

Friday, 11 April 2025

कोई जुगनू है क्या?

 कोई जुगनू है क्या?
जो इस तूफ़ानी रात के अँधेरे को 
चीरने को बेताब हो!
मैं आज की रात 
स्वप्न के बाज़ार में ठगना नहीं 
उन्हीं जुगनुओं की महफ़िल में
बिकना चाहती हूँ।
#आँचल  

Wednesday, 2 April 2025

एक चिड़िया थी

एक चिड़िया थी 
जो समुद्र की गहराई 
में डूबना चाहती थी,
एक मछली थी 
जो आकाश की ऊँचाई से 
इस संसार को देखना चाहती थी 
चाहतें इनकी ग़लत न थीं  
पर फिर भी 
लीक से हटकर तो थीं  
बस इसीलिए 
इनका जीवन एकाकी रहा 
अपनों की फ़ेहरिस्त में शेष 
'संघर्ष' ही एक साथी रहा।

#आँचल 

Friday, 7 February 2025

सोने का वक़्त हो चला है

सोने का वक़्त हो चला है 
पर अभी नींद का आँखों में आना शेष है,
'आज' आज ही बीत गया कल की तैयारी के साथ,
न आज में कुछ विशेष था और 
न कल ही में होगा कुछ विशेष 
फिर भी जगना होगा 
फिर से उसी सूरज के साथ,
कोई मंज़िल नही है मेरी 
जहाँ पहुँचने की जल्दी हो मुझे 
फिर भी भागना होगा 
तेज़ और तेज़ 
एक अंतहीन सड़क पर,
क्यों और किसलिए का जवाब 
मुझे पता नहीं 
और शायद इन जवाबों को मुझे 
अब ढूँढना भी नहीं 
हाँ,पर अब सोना है मुझे 
और गुज़ारनी है यह रात 
क्योंकि कल फिर 
एक अंतहीन सड़क पर मेरा भागना शेष है।

#आँचल 

जीवन

शाख़ से झड़ते पत्तों ने जब
नई कोपलों को फूटे देखा 
तो यही सोचा कि अब 
धीरे-धीरे इन्हें भी जीना है 
जीवन का हर रंग,
हर पहलू को समझना है,
जानना है कि 
संघर्षों की धूप में ही 
अपनों की छाँव मिलती है,
घिरते हैं बादल जब 
और घोर अंधकार छाता है 
तब जाकर किसी चातक की 
प्यास बुझती है,
खिलती हैं कलियाँ कहीं 
तो कहीं पतझड़ आता है,
रात,प्रभात और फिर रात 
रुका है कौन-सा समय?
सब आकर बीत जाता है
बालपन की चंचलता 
यौवन का शृंगार,
सफलता का माद,
प्रेम,विरह और अवसाद 
सब रह जाता है भीतर कहीं 
बनकर एक 'याद'
जो रहता है अंतिम क्षण तक साथ 
पर यह भी छूट जाता है 
हमारे झड़ने के साथ 
जैसे कल ये नई कोपलें
भी झड़ जाएँगी
जीवन के हर पहलू को 
समझने के बाद।

#आँचल