दिखाई और सुनाई देने वाला सत्य
सदा एक आश्चर्य-सा लगता है
क्योंकि झूठ
अब बहुत आम हो चुका है
फिर भी हम ख़रीदने तो
झूठ ही जाते हैं।
#आँचल
दिखाई और सुनाई देने वाला सत्य
सदा एक आश्चर्य-सा लगता है
क्योंकि झूठ
अब बहुत आम हो चुका है
फिर भी हम ख़रीदने तो
झूठ ही जाते हैं।
#आँचल
क्या लिखूँ?
लिखने को तो पूरा संसार है,
अनंत ब्रह्मांड है,
पर सब झूठ है!
और झूठ को बारंबार
कितने भी प्रकार से लिख दूँ
लिखा तो झूठ ही।
सत्य!
हा.. हा.. हा..
जो सत्य है वह
यह संसार न जानता है
न जानने की इच्छा रखता है
और इच्छा से चलने वाले
इस संसार में
'इच्छा' के विरुद्ध का सत्य
लिखकर भी क्या ही करूँ?
सब फिर झूठ हो जाएगा।
#आँचल
आज फिर रात हो गई
'दिन' को ढोते-ढोते!
आहिस्ता कंधों से उतार
उसे पटक दिया मैंने भू पर
फिर माथे से ढुलकते
तारों को समेटा आँचल में
गहरी श्वास भरी
और देखा नज़र उठाकर
आकाश की ओर
कि माँग लूँ उधार कुछ तारे
और बाँध लूँ
अपने आँचल में कसकर
इस आस में कि कल
जब बुझ जाएँगे
आशा के सब दीपक,
क्रान्ति की सब मशालें
और शहीद हो जाएँगे
सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते
तब शायद इन्हीं तारों में से
फूट पड़ें नए भोर की किरणें
पर अफ़सोस कि आज
आकाश का आँचल भी सूना हो गया
'अँधेरे के साम्राज्य में।'
#आँचल
हर रोज़ मेरे भीतर
एक कविता जन्म लेती है
और हर रोज़ अपने भीतर
मैं तोड़ती हूँ एक कविता का दम
नहीं,और कुछ नहीं बस
कुछ वक़्त का है सितम
कुछ रंग घुले हैं कम
और कुछ ताज़ा ही रह गए
बीते ज़ख़्म।
#आँचल