शाख़ से झड़ते पत्तों ने जब
नई कोपलों को फूटे देखा
तो यही सोचा कि अब
धीरे-धीरे इन्हें भी जीना है
जीवन का हर रंग,
हर पहलू को समझना है,
जानना है कि
संघर्षों की धूप में ही
अपनों की छाँव मिलती है,
घिरते हैं बादल जब
और घोर अंधकार छाता है
तब जाकर किसी चातक की
प्यास बुझती है,
खिलती हैं कलियाँ कहीं
तो कहीं पतझड़ आता है,
रात,प्रभात और फिर रात
रुका है कौन-सा समय?
सब आकर बीत जाता है
बालपन की चंचलता
यौवन का शृंगार,
सफलता का माद,
प्रेम,विरह और अवसाद
सब रह जाता है भीतर कहीं
बनकर एक 'याद'
जो रहता है अंतिम क्षण तक साथ
पर यह भी छूट जाता है
हमारे झड़ने के साथ
जैसे कल ये नई कोपलें
भी झड़ जाएँगी
जीवन के हर पहलू को
समझने के बाद।
#आँचल
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