हे अगोचर दृष्टिगोचर हो मेरी यह प्रर्थना है,
इस निरीह वन में तुम्ही साधन,तुम्ही से साधना है।-2
कल्पना है यह जगत और इस जगत का सत्य तुम,
अल्प है यह अल्पना,हैं मिथ्य विषय और तथ्य तुम।
राग,द्वेष,आमोद,क्लेश यह भाव सब ठहरे निमेष,
इस कामना के पाश से करो मुक्त मेरी कामना है।
हे अगोचर दृष्टिगोचर हो मेरी यह प्रर्थना है,
इस निरीह वन में तुम्ही साधन, तुम्ही से साधना है।
आसक्ति का जो दास है वह मन अधर्म का वास है,
निष्काम कर्म की भूमि पर आनंद का महारास है।
विलास और संत्रास में स्थितप्रज्ञ के अभ्यास से,
चैतन्य की चैतन्य से दूरी को क्षण में नापना है।
हे अगोचर दृष्टिगोचर हो मेरी यह प्रर्थना है,
इस निरीह वन में तुम्ही साधन,तुम्ही से साधना है।
अज्ञानता यूँ विलोप हो,मुझमें ही मेरा लोप हो,
भक्ति में मन यूँ विभोर हो तब ज्ञान की वह भोर हो,
जो विस्मय में जग को डालती, अद्भुत-सी यह पराकाष्ठा है,
आप ही से आपकी हो रही आराधना है।
हे अगोचर दृष्टिगोचर हो मेरी यह प्रर्थना है,
इस निरीह वन में तुम्ही साधन,तुम्ही से साधना है। -2
#आँचल
आसक्ति का जो दास है वह मन अधर्म का वास है,
ReplyDeleteनिष्काम कर्म की भूमि पर आनंद का महारास है।
विलास और संत्रास में स्थितप्रज्ञ के अभ्यास से,
चैतन्य की चैतन्य से दूरी को क्षण में नापना है।----अच्छी और गहरी रचना...।
हृदयतल से निकली सच्ची प्रार्थना !
ReplyDeleteअन्तर्मन से की गई प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है बहुत सुन्दर।
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