बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Monday, 26 December 2022

स्वाभिमान की भूख

निशातगंज चौराहे पर
पुल के नीचे,
दस - ग्यारह साल का वह बच्चा,
मैले कपड़े,बिखरे बाल,
धूल से सने उसके चंचल पाँव
जगह - जगह दौड़कर 
मेरे आगे ठहरे,
याचना को उसके हाथ फैले,
और उसकी आँखें....
वे आशान्वित आँखें 
मेरी सेंडल बनाते हुए 
बग़ल में बैठे 
उस मोची पर टिकीं,
मैं देख बड़ी हैरान हुई,
कुछ अजब - सी यह बात हुई,
मेरे आगे हाथ फैलाकर
मोची से कैसे आस लगी?
मैं गहरी सोच में डूबी 
एकटक उसे देख रही थी,
उसकी वे आँखें पढ़ रही थी।
उसकी आँखों में 
' स्वाभिमान ' की भूख थी,
और फैले हाथों में आज की भूख,
आशा से भरी वे आँखें 
कल स्वाभिमान से 
रोटी कमाने का हुनर सीख रही थीं।
वह ख़ाली हाथ और 
स्वाभिमान की भूख लिए आगे बढ़ गया
और मैं वहीं खड़ी सोचती रही
कि जो मुझे स्वाभिमान का मोल सिखा गया 
उसे गुरु दक्षिणा में 
मैं भला क्या दे सकती थी?

#आँचल 

Thursday, 1 December 2022

सावधान!

मशालें बुझने लगी हैं,
अँधेरे की ताक़त बढ़ने लगी है,
और कर्तव्य-पथ से भटके हुए 
ढ़ीठ,आलसी,लापरवाह लोग सो रहे हैं।
सावधान!
जनता के महल को लूटा जाने वाला है।
सभ्य डाकुओं की टुकड़ी 
आगे बढ़ रही है,
जनता सो रही है और जगाने वालों का मुँह सिल दिया गया है।

#आँचल 

Tuesday, 8 November 2022

यह कविता की बंजर शाला

 


कोरे पृष्ठों पर अंकित होती 

प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,

छंद-छंद कूके कोकिल और 

छम-छम नाचे सुंदर बाला।

वह युग कब का बीत चुका है,

यह कविता की बंजर शाला।


यह कविता की बंजर शाला।


उतर रही है हिम शिखरों से 

शुभ्र-ज्योत्सना कलकल सरिता,

डग-डग भू-जन पोषित हैं 

चखकर ज्ञान-सुधा का प्याला।

वह युग कब का बीत चुका है 

सुधा-पुंज अब उगले हाला।


यह कविता की बंजर शाला।


काट रही घनघोर तिमिर को 

दो-धारी तलवार-सी तूलिका,

हो भानुसुता-सी उतर रही है 

प्राची के उर में रश्मि-माला।

वह युग कब का बीत चुका है,

टूट गई अब रश्मि-माला।


यह कविता की बंजर शाला।


कोरे पृष्ठों पर अंकित होती 

प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,

वह युग कब का.......


यह कविता की बंजर शाला।


#आँचल 

Wednesday, 19 October 2022

मौन का ढोंग!

नमस्कार मैं 'आवाज़',
करती हूँ उन मौन आवाज़ों का सम्मान,
जो देश अथवा समाज में घटित घटनाओं पर साध कर मौन
करते हैं मात्र कल्पित जगत का ध्यान।
क्या तीज-त्योहार,व्रत-उपवास तक ही सीमित है उनका सामाजिक ज्ञान?
अरे नहीं!इन्हें तो ज्ञात है सारा गणित-विज्ञान,
फिर मौन रहकर क्यों बनते हैं विषयों से अंजान?
शायद दिखावे में नहीं करते हैं विश्वास।
तभी तो बड़ी-बड़ी गोष्ठियों में जो शिरकत करते हैं,
दो-दो,तीन-तीन महीनों में अपनी किताबें छपवाते हैं,
राजा साहब की नीतियों से लेकर जूतियों तक का 
मजबूरन गुणगान कर 
किसी तरह दो जून की रोटी के जुगाड़ में 
मोटी-मोटी गड्डियों से अपनी जेबें भरते हैं,
मंचों तथा ब्लॉग मंचों पर इतिहास के पृष्ठों को बदलते हैं,
धर्म के रक्षक बनते हैं,
वो ज्ञानवान,शूरवान साहित्यिक सिपाही 
भाषा,साहित्य तथा समाज 
के उचित उत्थान में 
अपना उचित योगदान देने की
हार्दिक इच्छा रखते हुए भी 
बलात्कारियों के सम्मान पर 
मौन रह जाते हैं,
ज़ात-धर्म के नाम पर 
बढ़ रही नफ़रत पर 
मौन रह जाते हैं,
बढ़ती महँगाई पर 
मौन को और बढ़ाते हैं,
निर्दोषों को मिल रहे दंड पर तो 
बोलते-बोलते रह जाते हैं,
कुपोषित बच्चों तथा शोषित जनता 
की आह! से लेकर हाहाकार तक 
इन्हें विचलित करती है 
पर क्या करें बेचारे!
मजबूर हैं
बनने को अंधे,गूँगे और बहरे।

#आँचल 

Thursday, 13 October 2022

माई तेरी काजल-सी ढिबरी को राखुँ



ओ माई तेरी काजल-सी ढिबरी को राखुँ,

जाग-जाग रतियाँ में सुबह सजाऊँ ।

ओ माई तेरी.....


ओ मैली ये चदरिया! कैसे छुड़ाऊँ?

छींट पड़े नफ़रत के कैसे मिटाऊँ?

हाय रामा! हारी,हारी,मैं हारी,

धो-धो चदरिया दागी मोरी साड़ी।


माई दागी साड़ी को कैसे छुपाऊँ?

जाग-जाग रतियाँ में .....


ओ लाँघी जो देहरी तो घर कैसे जाऊँ?

अटक-अटक भटकी,डग कैसे पाऊँ?

हाय रामा! हारी,हारी,मैं हारी,

ढो-ढो धरम,करम गठरी से हारी।


माई करम गठरी अब कैसे उठाऊँ?

जाग-जाग रतियाँ में .....


ओ फूटी रे हाँडी,कैसे-क्या पकाऊँ?

भीगी रे लकड़ियाँ,ताप कैसे पाऊँ?

हाय रामा! हारी,हारी मैं,हारी,

जेब पड़ी ठंडी,आग पेट में लागी।


माई ऐसी सर्दी में जी कैसे पाऊँ?

जाग-जाग रतियाँ में.....



ओ माई तेरी काजल-सी ढिबरी को राखुँ,

जाग-जाग रतियाँ में सुबह सजाऊँ।

ओ माई तेरी.....


#आँचल 

Friday, 7 October 2022

मड़ई के राम

"हे राम! हे राम! राम! राम! हे राम!"
अपनी मड़ई के बाहर डेहरी पर किवाड़ से सर टिकाए अचेत-सी बैठी ननकी फुआ जाने कौन से राम को रह-रह कर पुकार रही थी।
"फुआ!ओ फुआ!भीतर चल।सवेरे से यहीं बैठी प्राण सुखा रही है।"
पड़ोस की सुखिया की बहु ननकी को झकझोरते हुए पुनः सचेत अवस्था में लाने का प्रयास करने लगी।
"सुखिया की बहु राम लौटा?"
"नहीं फुआ,लौट आएंगे।"
"नहीं,नहीं लौटेगा राम।वो राक्षस... प्रधान का बेटा... वो कल मेरी बेटी को खा गया,आज मेरे बेटे को भी खा जाएगा।"
"नहीं फुआ,कुछ नहीं होगा,तुम उलटा क्यों सोचती हो? ये गए हैं न ढूँढ़ने,अभी देखना तुम्हारे बेटे के साथ ही लौटेंगे।"
सुखिया की बहु ननकी फुआ को समझाने का प्रयास करती है पर गाँव के बाहर हो रही रामलीला से आती आवाज़ें(रावण का अट्टहास और जय श्री राम का जयघोष)उसे फिर भयभीत कर देती हैं।
"कल भी ऐसे ही 'जय श्री राम' के नारे लग रहे थे।इसी आवाज़ के पीछे नौहरा(फुआ की बेटी )की चीखें दब गई,कोई नहीं आया सुखिया की बहु,कोई नहीं आया।
वो राक्षस... वो रावण.. वो प्रधान का बेटा उसे मेले में से उठा ले गया और किसी ने नहीं सुना?"
"हम छोटे लोगों की चीखें कौन सुनता है फुआ?"
"क्या दोष था उसका सुखिया की बहु? वो रावण जो रामलीला में राम बनने का ढोंग कर रहा है,उस ढोंगी की सीता न बनी बस यही पाप हो गया उससे सुखिया की बहु।बस इसी पाप ने उसके प्राण ले लिए।"
"राम जी न्याय करेंगे फुआ। तुम भीतर चलो।"
"कोई न्याय नहीं करेंगे राम जी।"सुखिया कुछ भरे गले के साथ,कुछ क्रोध में बोलते हुए आता है।
"फुआ तुम्हारे राम जी कोई न्याय नहीं करेंगे।हम गरीबों के भाग्य में ये रावण ही लिखें हैं।"
ननकी घबराते हुए सुखिया से पूछने लगी -
"सुखिया मेरा राम कहाँ है रे?"
"फुआ प्रधान के घर के बाहर जब रामदास थाना-कचहरी की धमकी देने लगा तो प्रधान के आदमियों ने उसे बहुत पीटा।रामदास चिल्लाता रहा और उसकी आवाज़ 'जय श्री राम' की गूँज में दबा दी गई।"
ननकी बेसुध खड़ी सुन रही थी। सुखिया की बहु ने पूछा-
"तो अब कहाँ हैं? तुम्हारे साथ नहीं आए?"
"नहीं,प्रधान के आदमियों ने उसे रावण के पीछे बाँध दिया है। प्रधान ने कह दिया है कि कोई पूछे तो धर्मद्रोही बता देना। प्रधान का बेटा जब रावण दहन करेगा तब रामदास भी..."
उधर गाँव के बाहर हो रही रामलीला की आवाज़ें ननकी के कान में पड़ने लगी। रावण के "हे राम!"कहकर गिरते ही वहाँ इकट्ठा पूरा गाँव एक स्वर में 'जय श्री राम' का जयघोष करने लगा।ननकी अपने आँसू पोंछ रामलीला मैदान की ओर दौड़ने लगी। प्रधान का बेटा रावण के पुतले पर धनुष साधे खड़ा था।ननकी की दृष्टि मंच पर रखे रावण के मुकुट पर पड़ी।जैसे ही प्रधान के बेटे ने बाण छोड़ा ननकी ने प्रधान के बेटे को रावण का मुकुट पहना दिया।उधर रावण के पुतले के साथ रामदास भी जलने लगा और इधर पूरा गाँव इस जीवित रावण को देखने लगा। प्रधान के बेटे ने तमतमाते हुए पूछा-
"यह क्या किया तुमने?"
ननकी ने पागलों की तरह ठहाके लगाते हुए कहा -
"देखो गाँव वालों,कलयुग में 'राम दहन' होता है 'रावण दहन' नहीं।"

#आँचल 

Wednesday, 28 September 2022

रात बैठी दीये मैं जलाती रही

 (यहाँ 'मैं' अर्थात लेखनी)


रात बैठी दीये मैं जलाती रही,

इस अमावस से रार निभाती रही,

बुझ चुकीं न्याय की जब मशालें सभी, 

एक जुगनू से आस लगाती रही।


रात बैठी.........


चढ़ चुके थे हिंडोले विषय जब सभी,

सज चुके मानवी जब खिलौने सभी,

मेला झूठ का ठग ने लिया जब सजा,

मैं भी सत्य का ढोल बजाने लगी।


रात बैठी........


दामिनी नैन अंजन लगाने लगी,

रागिनी राग भैरव गाने लगी,

यामिनी से गले लग खिली जब कली,

मैं भी दिनकर को ढाँढ़स बँधाने लगी।


रात बैठी........


आँख से बहते पानी से छलने लगे,

लोग अंतिम कहानी पे हँसने लगे,

जब हिमालय भी थककर बिखरने लगा,

मैं भी पत्थर-सी सरिता बहाने लगी।


रात बैठी........


#आँचल 

Friday, 16 September 2022

चोला झूठ का सच को ओढ़ा दीजिए

कुछ आँखों में शर्म बाक़ी हो 
तो उतार फेंकिए,
बिकी स्याही से काग़ज़ को
सजा लीजिए,
हाँ,लिख दीजिए नया छंद कोई,
फिर लाखों में उसको नीलाम कीजिए।
राजा के दुर्गुण का बखान कीजिए,
भर-भर झोली फिर इनाम लीजिए,
लाशों के ढेर छुपा दीजिए 
अरे,नर्क को  स्वर्ग बता दीजिए!
बीज नफ़रत के बोए,लहलहाने लगे 
गली-सड़कों पे लहू यूँ बहाने लगे,
कहीं पेड़ों पर लटकी मिली बेटियाँ,
कहीं गुंडे भी गोली बरसाने लगे,
ऐसी बातों से नज़रें चुरा लीजिए।
जब कर्तव्यों की उड़ने लगीं धज्जियाँ
तब लिखना न "जलने लगीं बस्तियाँ",
और "आपस में भिड़ने लगीं जातियाँ"
इन बातों पर थोड़ा बस ध्यान दीजिए,
जलती बस्ती पर रोटी बना लीजिए,
आग को मज़हबी हवा दीजिए,
दोषियों की स्तुति-वंदना कीजिए,
अरे लिखिए,न ख़ुद से गिला कीजिए,
गुरु बन कर सभी को दिशा दीजिए,
धर्म क़लम का ऐसा निभा लीजिए
चोला झूठ का सच को ओढ़ा दीजिए।

Friday, 19 August 2022

मैं अमरता की नहीं कोई प्यास लेकर आई हूँ




मैं अमरता की नहीं कोई प्यास लेकर आई हूँ,

मोक्ष की,वरदान की न चाह लेकर आई हूँ,

मैं समर्पण भावना से,नेह के उल्लास से,

प्रीत की गागर लिए सागर के द्वार आई हूँ।


मैं अमरता की नहीं......


नृत्य-नूपुर राधिका के मैं न बाँधे आई हूँ,

मैं नहीं मीरा की वीणा साथ लेकर आई हूँ,

मैं नहीं हूँ सूर जो अंतर में तुझको पा सकूँ,

धूल हूँ,चरणों की तेरे धूल होने आई हूँ।


मैं अमरता की नहीं......


रंग है,न रूप है,न संग में कोई कोष है 

मोह है,न क्षोभ है,न जग से कोई रोष है,

दोष है मेरा कि मैं उजली सुबह न हो सकी,

यामिनी से द्वंद्व में पर हार के न आई हूँ।


मैं अमरता की नहीं.....


संकल्प की अभिसारिका,कर्तव्य हेतु आई हूँ,

परिणय की अग्नि-शिखा को पार कर के आई हूँ,

ओढ़कर चूनर वैरागी प्रणय पथ पर आई हूँ,

शून्य हूँ, महाशून्य में अब लीन होने आई हूँ।


मैं अमरता की नहीं कोई प्यास लेकर आई हूँ,

मोक्ष की,वरदान की न चाह लेकर आई हूँ,


मैं अमरता की नहीं......


#आँचल 

Thursday, 18 August 2022

मैं खंडित-अखंड भारत हूँ

 


मैं भारत थी,

अखंड भारत।

मेरी विविधता थी 

मेरे गर्व का कारण,

मेरी संतान करती थी 

सहृदयता को धारण,

कर्म जिसका पथ था 

और था सत्य का बल 

प्रेम-सौहार्द संग

था जो निश्छल। 

अनेक होकर भी एक,

एकता का सूत्र प्यारा था।


मैं आज भी 

भारत हूँ,

खंडित-अखंड भारत।

निरपराध मैं 

अपनी ही संतान द्वारा 

दंडित अखंड भारत।

ज़ात-धर्म पर मुझे बाँटा गया,

राग-द्वेष से पाटा गया,

मेरी गोद में खेलती अबोध संतान

को मौत के घाट उतारा गया!

मैं स्तब्ध खड़ी देखती रही

मेरी संतान की निर्ममता,

मेरे टुकड़े कर चिल्लाया गया-

"संकल्प हमारा देश की अखंडता।"


#आँचल 

Monday, 15 August 2022

स्वतंत्रता दिवस की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ


 

नमस्कार 🙏 

आज स्वतंत्रता दिवस की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।


प्रार्थना है कि यह आज़ादी जो हमें प्राप्त है,जिसका हम जश्न मना रहे हैं वह सदा बनी रहे। हम अपनी सांप्रदायिक मानसिकता का त्याग करते हुए, बैरभाव का नाश करते हुए एक साथ देश के आर्थिक एवं बौद्धिक विकास हेतु प्रयासरत रहें। हमारा प्रत्येक कर्म स्वार्थ-साधना से ऊपर उठकर राष्ट्रसाधना  में समर्पित हो। अपनी उपलब्धियों पर अपनी पीठ थपथपाते वक़्त हम यह न भूलें कि अभी बहुत कुछ है जो प्राप्त करना शेष है। प्रत्येक देशवासी के सर पर छत, तन पर वस्त्र और थाल में रोटी पहुँचाना शेष है। 

..... और एसी प्रार्थना हम ईश्वर से नहीं देशवासियों से करते हैं क्योंकी  यह सब हम देशवासियों के कर्मनिष्ठ हाथों से ही संभव है। हमें चाहिए कि हम अपनी जन-जन में भेद करनेवाली ओछी मानसिकता की दासता से मुक्त हों,जन-कल्याण की भावना को अपने अंतर में समाहित करें और विकास के पथ पर अग्रसर होते हुए विश्वभर में देश की कीर्ति पताका फहरा दें। बस यही हमारी देशसेवा कहलाएगी।


जय हिंद 🙏



Tuesday, 9 August 2022

गरजते मेघ


"अरी ओ कमली!थरिया परस जल्दी, भूख से प्राण जाने को हैं। दुई निवाले मुँह म जाएँ त पेट की आग कछु शांत हो। जल्दी कर तब तक हम पैर-हाथ धोई के आवत हई।"
भरमदास डिस्टेम्पर की काई लगी बाल्टी में भरे पानी से पैर-हाथ धोते हुए पत्नी कमला देवी से बोले।

कमला देवी ने अपनी बड़ी बिटिया को चिल्लाते हुए पुकारा-
"अरी ओ रनिया कहाँ मर गई री! देख,बादल गरजत हैं; जा, बाँस पर से कपड़े उतार ला, सूख ग होई।"

भरमदास ने भोजन के लिए लकड़ी के पटरे पर बैठते हुए कमला देवी से कुछ गंभीर स्वर में कहा- 
"अरी कमली!ई गरजते मेघ न बरसेंगे। चुनाव म कितना गरजे रहे सब, बरसे भला? अब भोजन परस जल्दी।" 

कमला देवी ने रोटी सेंकते हुए फिर अपनी बड़ी बेटी को पुकारा-
"रनिया हो, बहरे से लछमी, गोलू और गुड्डु को भी बुला ला।"
 
रानी अपने छोटे भाई-बहन के साथ भीतर आई तो हाथ में बेलन लिए हुए कमला देवी ने अपनी दोनों बेटियों को निर्देश देते हुए कहा- "रनिया तू भोजन परस, लछमी मेटा में से पानी निकाल कर रखेगी सबके आगे।"

रानी थाली में गुड़, नमक और चार रोटियाँ सजाकर अपने बाबा के आगे रख आई।भरमदास ने थाली देख कुछ निराश स्वर में कमला देवी से पूछा- "दाल-सब्ज़ी नाही रही का?" 

कमला देवी ने कुछ झुँझलाते हुए जवाब दिया- "इतना महँगाई म तोहार सौ-दुई सौ क मजूरी रोज़ का रोज़ ख़रच होई जाए त ई घर कईसे चले भला? मकान-मलकिन आए रहिन, चार महीना का किराया बाक़ी बा।
अब त पहिले कमरा क किराया जुटे तब दाल-सब्ज़ी  बने।" 

निराशा और कमला देवी के ताने से भरमदास का पेट भर गया। भरमदास ने रानी को दो रोटियाँ वापस करते हुए कमला देवी के ताने का जवाब देते हुए कहा- "पेट त भरी ग।"

इसपर कमला देवी ने कहा- "अब तोहे सूखी रोटी परसत हमार जी नाही जलत का? हमहू का करी? महँगाई क हिसाब से तोहार मजूरी कछु ठीक-ठाक मिले त दाल-सब्ज़ी  का हम अमृत परस देब।"

महँगाई को कठघरे में खड़ा करते हुए अपनी सफ़ाई में दिए गए कमला देवी के इस बयान पर व्यंग्य मुस्कान भरते हुए भरमदास बोल पड़े- "तू का परस्बू? पंद्रह अगस्त तक त ख़ुदै अमृत बरसत बा।" 
"ए गोलुआ!काल एक ठे तिरंगा ख़रीद के दूआरे फहरा दे। प्रभु की लीला होई त हमरो घर अमृत बरसे। ई सूखी रोटी नाही तब त मालपुआ  खाब हम। " 
गोलू को यह आदेश देने के बाद भरमदास सूखी रोटी चबाते हुए मालपुआ के मीठे स्वप्न में खो गए।

#आँचल

Thursday, 4 August 2022

विश्वमोहिनी की अमृत - गगरी


कुछ इठलाती,कुछ बलखाती,

गगरी अमृत की छलकाती 

वह विश्वमोहिनी, विश्वसुंदरी  

रूप से अपने भरमाती 

तब विश्वगुरु भी बहक - बहक 

सुध - बुध अपनी सब बिसराते 

और गरल - सुधा का भेद भूल 

जब गरल सुधा - सम पी जाते,

तब इठलाती कुछ बलखाती 

वह विश्वमोहिनी विश्वगुरु को 

छलकर शोक में मुसकाती।


#आँचल 

Saturday, 30 July 2022

निद्रा - विहार

जो सो चुके हों वे जाग जाएँ और जो जागने का ढोंग कर रहे हों कृपया ईमानदारी से सोए ही रहें, उन्हें जागने की आवश्यकता भी नहीं। वैसे भी धर्म की गोलियाँ लेने के बाद नींद की गोली लेने की लंबे समय तक आवश्यकता नहीं पड़ती और जब तक आपको आवश्यकता पड़ेगी तब तक धर्म का फिर कोई नया मुद्दा या यूँ कहें नींद की नई गोली तैयार रहेगी। आप चैन से सोइए। आप धर्मांध लोगों को यह बिल्कुल जानने की आवश्यकता नहीं है कि आपके धर्मपरायण देश में आपकी बंद आँखों के सामने कितने घोटाले,कितना भ्रष्टाचार हो रहा है। विकास की झूठी रसीदें दिखाकर किस प्रकार आपको ठगा जा रहा है। 

आपने जब अपने सेवकों को ही अपना कर्ता-धर्ता मान उन्हें अपने तिजोरियों की चाभी सौंप दी है तो अब आपको चाहिए कि आप वैराग्य धारण कर नींद की नौका पर सवार होकर कुंभकरण को भी पछाड़ते हुए स्वप्नलोक की तीर्थयात्रा पर इतने दूर निकल जाइए कि वापस लौटना ही न हो क्योंकि लौटने पर अर्थात जागने पर आपको यह जानकर अथाह कष्ट होगा कि आपने अपने साथ-साथ इस देश और समाज के दुर्भाग्य का भी चुनाव किया था।

देश में विकास के नाम पर कहाँ कौन अपनी जेब भर रहा है, कौन धर्मपाश में फँसाकर देश का दम घोंट रहा है, अस्पतालों , स्कूलों , विश्वविद्यालयों, बैंकों आदि में किस प्रकार भ्रष्टाचार और सियासी खेल चल रहा है, अपने पद का कहाँ कौन अनुचित लाभ उठा रहा है इन बातों से भला आपका क्या सरोकार? देश की आत्मा पर लगातार हो रहे प्रहार से आपके निजी जीवन पर कोई प्रभाव पड़ा भी तो क्या? रंगों के अधीन, मॉल में बिकने वाला, चुनावी रैलियों में सुनाई देने वाला और सांप्रदायिक दंगों में दिखाई पड़ने वाला आपका धर्म उन्नति के पथ पर अग्रसर रहे बस यही प्रार्थना आप सब अपने-अपने ईश्वर से करते हुए और किलो-किलो भर प्रसाद धरती पर अवतरित महापुरुषों को चढ़ाते हुए सुख-चैन से ए. सी. चलाकर सो जाइये। आपकी यह निद्रा-विहार मंगलमय हो और महंगाई,बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि के दुःस्वप्न आपकी नींद में बाधक न हों  यही आप सभी के ईश्वरों से प्रार्थना है। शुभ रात्रि 🙏

#आँचल 

Tuesday, 19 July 2022

पुस्तक समीक्षा - " चीख़ती आवाज़ें " ध्रुव सिंह ' एकलव्य '

इस भागते-दौड़ते मशीन युग में जब मनुष्य में मनुष्यता का लोप होता जा रहा है,संवेदना क्षीण होती जा रही है और हृदय भावशून्य होता जा रहा है तब कविता ही भाव-गंगा के रूप में प्रवाहित होकर मनुष्यता को सींचती है। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी अपने निबंध " कविता क्या है ? " में लिखते हैं -
" मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता चला आ रहा है जिसके भीतर बँधा-बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध भूला-सा रहता है। इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खाने का डर बराबर रहता है। इसी की अंतः - प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।"

शुक्ल जी के इन्हीं वचनों पर खरी उतरती है लखनऊ के युवा कवि, कहानीकार,ब्लॉगर आदरणीय सर श्री ध्रुव सिंह एकलव्य जी की पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें "। यह चीख़ती आवाज़ें मनुष्य की मनुष्यता को झकझोर कर पूछती हैं कि क्या यही हो तुम? एक संवेदनहीन मनुष्य! और यही है तुम्हारा संसार जहाँ अनसुनी कर दी जाती है हर रोज़ कोई चीखती पुकार?

आदरणीय ध्रुव सर को प्रथम बार पढ़ने का सुअवसर उनके ब्लॉग " लोकतंत्र संवाद " से प्राप्त हुआ किंतु उनसे परिचय हमारे फेसबुक पर आने के पश्चात संभव हुआ। समय के साथ सर के ब्लॉग पर प्रकाशित लगभग सभी रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य हमे मिला। सर की लेखनी में जो संवेदना है, क्रांति की जो आग है एवं सत्य के पक्ष में निर्भीक खड़े रहने का जो साहस है वह उनके पाठकों को उनका प्रशंसक बनने पर विवश कर देती है। यही गुण हमे उनके काव्य-संग्रह " चीख़ती आवाज़ें " में भी देखने को मिलते हैं।

प्राची डिजिटल पब्लिकेशन द्वारा वर्ष 2018 में मेरठ से प्रकाशित यह काव्य - संग्रह " चीख़ती आवाज़ें " सर की प्रथम प्रकाशित पुस्तक है। आदरणीय सर ने इस पुस्तक को सुंदर पंक्तियों के संग अपनी माताश्री श्रीमती शशिकला सिंह जी को समर्पित किया है। १०१ पृष्ठों में ४२ मार्मिक कविताओं को समाहित करने वाली यह पुस्तक मात्र ११० रुपए के मूल्य पर आकर्षक कवर के साथ उपलब्ध है। इस पुस्तक के कवर पेज पर प्रस्तुत चित्र जिसका सृजन स्वयं ध्रुव सर ने किया पुस्तक के अंतर में निहित समस्त भावों को स्पष्ट करती है। 

दिल्ली के प्रगतिवादी कवि,प्रसिद्ध ब्लॉगर,लेखक,चिंतक,समीक्षक आदरणीय सर श्री रविन्द्र सिंह यादव जी पुस्तक को सुंदर भूमिका प्रदान करते हुए लिखते हैं -
" प्रस्तुत पुस्तक में कवि ने अपने कृतित्व में प्रतिरोध को केंद्रीय भाव के रूप में स्थापित किया है।"

" समाज के उपेक्षित कोनों में जो अनवरत दबता चला जा रहा है वहाँ कवि की दृष्टि ठहरती है और दुःख - दरिद्रता, बेचारगी,दमन और सामाजिक असमानता पर क़लम अपना कमाल दिखाती है। परिवर्तन की इच्छाशक्ति जगाती और शहर व ग्रामीण जीवन की विसंगतियों पर पैनी नज़र गढ़ाती कवि की सृजनशीलता जीवन में नए अर्थ खोजती है। "

भूमिका के अंत में सर यह भी लिखते हैं कि -

" कुछेक रचनाओं में जहाँ प्रवाह की कमी खटकती है तो वे ही वाचक को दर्द की गहराई में उतरने को प्रेरित भी करती है। "

प्रस्तुत पुस्तक में हमे उनके प्रगतिवादी विचारों की जो झलक मिलती है उसका मूल स्रोत आदरणीय ध्रुव सर स्वयं अपने पिता श्री लालमणि सिंह जी को मानते हुए पुस्तक के माध्यम से उन्हें विशेष आभार व्यक्त करते हैं।  साथ ही सर ' प्रयोग ' को समाज के लिए आवश्यक बताते हुए लिखते हैं -

" सभी दिशाओं में प्रयोग सदैव ही प्राणीमात्र के सर्वांगीण विकास में एक सच्चे मार्गदर्शक का कार्य करता रहा है। "




यह पुस्तक किसी कवि की कुछ कविताओं का संग्रह मात्र न होकर एक कड़ा प्रहार है सामाजिक कुरीतियों,विषमताओं एवं हमारी संकुचित मानसिकता पर। यह प्रयास है उस यथार्थ को प्रतिपल हमारे समक्ष प्रस्तुत रखने का जिसे हम अक्सर झुठलाते या नजरअंदाज कर देते हैं।

" चीख़ती आवाज़ें " के पात्र बेशक काल्पनिक नही हैं। हम अक्सर इन्हें अपने आसपास उठते- बैठते - जीते देखते हैं,अपनी परिस्थितियों से जूझते देखते हैं पर आश्चर्य है कि हम इनकी व्यथा को समझने से चूक जाते हैं। जिन्हें हम सदा हीन दृष्टि से देखते आए हैं उन पात्रों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। हमारी दृष्टि में जो दोष है यह पुस्तक उसी का उपचार करने हेतु एक सार्थक प्रयास है।

अब इन पात्रों से आपका परिचय करवाते हुए प्रस्तुत पुस्तक की कुछ कविताओं की छोटी-सी झलक पेश करना आवश्यक जान उसी दिशा में आगे बढ़ती हूँ।

पुस्तक की प्रथम कविता " मरण तक " में कवि ने बीड़ी बनाने के लिए पत्ते बीनने वाली एक स्त्री का मार्मिक चित्रण किया है। उस स्त्री की दुर्दशा को देख उसे कुरूप जान जब लोग उससे मुहँ फेर लेते हैं तब वह स्वयं यह कहकर कि वह बीड़ी के धुएँ में सुंदरी-सी लगेगी हमे हमारे दृष्टिकोण पर पुनः विचार करने को विवश करती है।

" बाबू जी 
मत देखो!
विस्मय से मुझे और 
मेरी दुर्दशा जो हुई 
उन पत्तों को लाने में।

आग में धुआँ बनाकर 
जो लेंगे कभी 
तब दिखूँगा! सुंदरी - सी 
मैं। "

कविता " ख़त्म होंगी मंज़िलें " में कवि ने उन मजदूरों को पात्र के रूप में लिया जो बड़े-बड़े नगरों में अनेक मंज़िलों की ऊँची इमारतें बनाते हैं किंतु विडंबना देखिए कि स्वयं उनकी रात्रि फ़ुटपाथ पर यह सोचते हुए बीतती है कि किसी प्रकार उदर की यह आग ( भूख ) सदा के लिए बुझ जाए और फिर कोई मंज़िल निर्माण का कार्य न करना पड़े। 

" साँझ ढलेगी!
रात्रि का जागता 
वो पहर 
मंज़िलों के निर्माण का 
विश्राम वाला दिन 
हम फ़ुटपाथ पर 
चूल्हा जलायेंगे पुनः 
उदर की आग बुझाने 
के लिए।

केवल सोचते हुए यही 
बुझ जाए 
यह आग 
सदा के लिए 
ताकि आगे कोई मंज़िल 
निर्माण की 
दरकार न बचे
कभी! "

कविता " ग़ुलाम हैं " में कवि उन किसानों की व्यथा-कथा को प्रस्तुत करते हैं जिनकी परिस्थिति में स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर आज तक कोई परिवर्तन नही हुआ। उनकी आँखों में पल रहे स्वप्न आज भी प्रतीक्षा करते हुए सूख जाते हैं।

" देते थे लगान 
लगाकर 
लगाम मुख पर कभी।

कर रहे हैं 
अदा!
खोखली स्वतंत्रता के नाम पर 
मजबूरियाँ अपनी 
वर्तमान में। "

एक बेगार के जीवन की घोर विडंबना को दर्शाती है कविता " विरासत "। जहाँ एक बेगार अपनी संतान को विरासत में यही बेगारी का जीवन देने को विवश है।

" बिना थके,रुके,सोए...
जाड़ा हो या बरसात 
नमक - हराम नहीं 
नमक - हलाल हूँ!
भाग्य तेरा भी यही है 
मेरे बच्चे 
आख़िर विरासत है 
अंतिम!
' बुथई ' का 
वही नीम का अकेला 
पेड़। "

हमारे समाज में यह भी एक विडंबना ही है कि कहीं किसी के पास 4-5 आलीशान मकान हैं तो कहीं किसी के लिए खुले आकाश के नीचे यह फ़ुटपाथ ही सुलभ स्थान है। कविता " खटमल का दर्द " इसी विडंबना पर एक करारा व्यंग है।

" खटमल को शायद 
आदमी पसंद हैं 
और वो भी 
फ़ुटपाथ के! "

अपनी रोटी के इंतज़ाम के लिए रेलवे स्टेशनों पर तंबाकू एवं गंगाजल के नाम पर पेयजल बेचने हेतु दौड़ - भाग  करते इन बच्चों को कविता " अठन्नी - चवन्नी " में पढ़ना भी कम कष्टपूर्ण नही। यह कविता क्षणभर में मिथ्या गर्व को चूर कर पाठकों की आंखें लज्जा से झुकाकर उन्हें यह सोचने पर विवश करती है कि आख़िर इन मासूमों का दोषी कौन?

बदमाश, बेग़ैरत हैं 
कितने! छोटे ये 
सौदागर 
बेच रहे केवल 
पेट की खातिर 
स्वाद बनाने वाले 
बाबूओं के मुँह का 
मौत - सा! सामान "

प्रस्तुत पुस्तक में कवि ने एक पात्र " बुधिया " का वर्णन अनेक कविताओं में किया है। इसका वर्णन हमे पुस्तक के कवर पेज के पिछले भाग पर भी मिलता है। यह " बुधिया " हमारे समाज के उस दीन-हीन -शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी विपन्नता,विवशता एवं समाज की संकीर्ण मानसिकता से प्रतिदिन संघर्ष करते हुए अपने एवं अपने परिवार का पालन करने का यत्न करता है।

" रोटी बुधिया की "  में जहाँ " बुधिया की सारी सूखी रोटियाँ " सर्व - सुख संपन्न समाज को उसके छोटेपन का एहसास कराती है तो वहीं कविता " बुधिया के धान " किसान वर्ग की दारुण दशा और उनपर हो रहे शोषण की ओर संकेत कर पाठकों के मन को व्यथित भी करती है।

" डरे भी हैं!
प्रसन्न भी 
कारण है 
वाजिब!
परदेसियों के आगमन का।

मेहनत बिन 
ले जायेंगे हमको 
हाथों से हमारे 
पालनहार के,
जिसे हम 
' बुधिया ' 
बाबा कहते हैं। "

जिस देश-समाज  में स्त्री देवी,शक्ति,प्रकृति आदि विशेषणों से अलंकृत की जाती है वहीं उसे माँ,बेटी,पत्नी,बहु के रूप में खोखली मर्यादाओं की बेड़ियों में बाँधकर उसका शोषण किया जाता है। हमारे लाख नकारने एवं  तर्क देने पर भी हम इस सत्य को झुठला नही सकते कि इतनी कुप्रथाओं के दमन के पश्चात,इतने आंदोलन एवं अभियान के पश्चात, समाज के विचारों में इतने परिवर्तन के पश्चात भी स्त्रियों की दशा और उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण आज भी चिंता का विषय है। प्रस्तुत पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें " में भी कवि जब इन स्त्रियों के अधरों पर सुसज्जित मिथ्या मुस्कान के पीछे की चीख़ - पुकार सुनता है तो उसकी लेखनी भी व्याकुल हो उठती है। इसी के परिणाम स्वरूप कवि की लेखनी " स्त्री विमर्श " पर भी खूब चली है।

इस आज़ाद देश में जब हम स्त्री की पूर्ण आज़ादी के विषय में गर्व से चर्चा करते हैं तब हमारे भ्रम को भंग करने के उद्देश्य से अवतरित होती है कविता " निर्धारण "। यह कविता हमे समाज में स्त्री की तय सीमाओं के विषय में बताते हुए हमे वास्तविकता से अवगत कराती है।आज भी समाज की दृष्टि में एक स्त्री की यात्रा पिता के आंगन से पति के घर होती हुई मृत्यु शय्या पर समाप्त हो जाती है।

" बाँध दिया बे - ज़ुबान 
बकरी की तरह,
मैं नहीं बदली 
न ही मेरे दिन 
निःसंदेह!

परिवर्तन तो हुआ है 
रेखाओं की सीमाओं में 
जो जाती हैं होकर 
बाबुल के घर से 
पिया के आश्रय तक। "

माँ और उनकी ममता के आगे ईश्वर का अथाह सौंदर्य भी फ़िका पड़ जाता है किंतु यही माता जब अपनी संतान के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से अपने कर्तव्यों के निर्वाह में जुटती है तो इसे स्वयं की भी सुध नही रहती। ममता की यह मूरत अपने बच्चों की एक मुस्कान के लिए नित नए जुगाड़ ढूँढ़ती स्वयं का ही बलिदान देती रहती है।कविता " जुगाड़ " एसी ही माँ के बलिदान की गाथा है।

" प्रसन्न थे हम 
दिन-प्रतिदिन 
खो रही थी वो 
हमे प्रसन्न रखने के 
जुगाड़ में। "

महाप्राण निराला जी की कविता " वो तोड़ती पत्थर " को विस्तार प्रदान करते हुए कवि ने कविता " फिर वो तोड़ती पत्थर " के माध्यम से समाज को गंभीर प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है। निराला जी की कविता की वह मेहनतकश स्त्री क्यों आज परिस्थितियों से इतनी विवश हो गई कि पत्थरों के स्थान पर स्वयं की अस्मिता पर चोट करने लगी?

" अब तोड़ने लगी हूँ 
जिस्मों को 
उनकी फ़रमाइशों से 
भरते नहीं थे पेट 
उन पत्थरों की तुड़ाई से। "

स्त्री विमर्श और नारी सशक्तिकरण पर अक्सर ही बहसें हुआ करती हैं और होनी भी चाहिए किंतु किसका सशक्तिकरण?किसे सशक्त होने की आवश्यकता है और कौन पहले से ही है? इन्ही विचारणीय प्रश्नों को उठाने का प्रयास कवि अपनी कविता " सशक्तिकरण " में करते हैं।

" प्रश्न है 
किसका?

सशक्त थीं 
पूर्व में जो 
अथवा 
तरस रहीं 
दो जून की रोटी को। "



एकलव्य की लेखनी वह धनुष है जिसकी प्रत्यंचा पर जब पंक्तिबद्ध शब्दबाण चढ़ते हैं तो वह निश्चित अपने गंतव्य तक पहुँचते हैं। पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें " भी ऐसे ही ४२ बाणों से सजा एक तरकश है। उपेक्षित वर्ग के संघर्ष की गाथा,उनकी व्यथा,उनकी पीड़ा को धारण किए ये बाण जब पाठकों के हृदय तक पहुँचते हैं तो इस जगमगाती दुनिया के पीछे के यथार्थ को उजागर करते हुए पाठकों को द्रवीभूत करते हैं।

प्रस्तुत पुस्तक का भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों ही सराहनीय है। तत्सम एवं उर्दू  शब्दों से अलंकृत इसकी सहज - सुंदर भाषा पाठकों को इसमें निहित गूढ़ अर्थ तक पहुँचने में सहायक है।
समाज में व्याप्त विषमताओं का खंडन करने एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना करने के उद्देश्य से सृजित यह पुस्तक निश्चित ही सुधि पाठकगणों एवं साहित्य समीक्षकों की सराहना की पात्र है।
इस अद्भुत कृति हेतु हम आदरणीय ध्रुव सर को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए उन्हें एवं उनकी कर्मनिष्ठ,साहित्यसेवी लेखनी को सादर प्रणाम करते हैं। माँ शारदे से यही प्रर्थना है कि आदरणीय सर की लेखनी की धार निरंतर बढ़ती रहे और उनकी यह साहित्य सेवा अनवरत चलती रहे।
प्रणाम 🙏

Thursday, 23 June 2022

मम्मी - डैडी की इकतीसवी विवाह वर्षगाँठ पर कुछ पंक्तियाँ अर्पित।



इकतीसवी विवाह वर्षगाँठ के सुअवसर पर मेरे प्यारे से मम्मी-डैडी को अनंत बधाई,शुभकामनाएँ और ढेर सारे प्यार संग कुछ पंक्तियाँ अर्पित हैं 🙏💕


हे शतकोटि अंबर सम ऊँचे,

विमल धरित्रि सम गुण भींचे,

हे भवभूषण,हे त्रिपुरसुंदरी,

हे मधु से मधुर आम्र मंजरी,

हम बालक भँवरा सम डोलें,

वात्सल्य-सुधा-रस का सुख भोगें,

अमृत है सौभाग्य हमारा,

भव-सिंधु में आप किनारा,

संघर्ष-सुवन में बाबा ही छाँव,

आँचल में ममता का गाँव,

इन चरणों की क्या कीरति गाँऊ?

जिन चरणों में हो हरि का ठांव 

कौन सुरेश्वर? कौन जगतपति?

आप में ही त्रिलोक,सुख,संपत्ति,

हे करुणेश्वर,क्षमा के सागर,

आप से ही भरे ज्ञान-गुण-गागर,

हम मूढ़ी,अपराध ही जाने,

सेवन-पूजन की विधि क्या जाने,

श्रद्धा से जो शीश नवाएँ,

बैकुंठपति के दर्शन पायें।


#आँचल 

Thursday, 9 June 2022

सूरज चाचा को हुआ ज़ुकाम।

 


एक दिन सूरज चाचा ने थक कर ली उबासी,

वहीं-कहीं पर खेल रहे थे भोले चंदा मामा जी,

जो खुला सूर्यमुख गुफा समान,

ठंडे-ठंडे मामा बन गए मेहमान,

मुख से भीतर प्रवेश हुआ,

फिर हुआ वही जो कभी न हुआ।

सूरज चाचा को हुआ ज़ुकाम,

अम्मा उनकी हुई परेशान,

जो छींकें तो आँधी आ जाए,

नाक बहे तो बारिश,

देवगण भी सोच रहे किसने की यह साज़िश?

भाँप-बाम कुछ काम न आया 

तब अम्मा ने डॉक्टर को बुलाया,

डॉक्टर ने मोटी सुई लगाई,

जाँच-रिपोर्ट बनकर आई,

पढ़कर डॉक्टर हुए हैरान,

सूर्य के भीतर बैठा कोई शैतान!

फिर ऑपरेशन तत्क्षण हुआ,

डॉक्टर ने चांद को मुक्त किया,

ज़ुकाम सूर्य का ठीक हुआ

पर चंदा थोड़ा झुलस गया,

उजले मुख पर दाग देखकर 

चांद बड़ा पछताया,

मोटे-मोटे आँसू संग सूर्य को यह बतलाया -

"अगर थोड़ा-सा मैं देता ध्यान 

करता न तब ऐसा काम,

मुख है,गुफा नही यह बात 

अगर मैं लेता जान।"

तब सूरज चाचा ने बड़े प्रेम से 

चंदा मामा को समझाया,

"अनुभव में ही ज्ञान पले"

यह भेद उन्हें बतलाया।

माना गलती से होते हैं 

थोड़े-बहुत नुकसान,

पर इससे ही लेकर सीख 

बनते लोग महान।


#आँचल 


( प्रस्तुत चित्र का श्रेय मेरे छोटे भाई आशुतोष पाण्डेय को )

Wednesday, 8 June 2022

जल रहा है देश मेरा।


 तप रहा है देश मेरा 

सूर्य के क्या ताप से?

या जल रहा है यह प्रचंड 

नफ़रतों के आग से?

हैं कौन सी ये आँधियाँ?

है काम इनका क्या यहाँ?

क्या यह प्रजा का रोष है?

या स्वाँग कोई रच रहा?

कैसा उजाला है यहाँ?

कोई छलावा है यहाँ!

इस रोशनी के गर्भ में 

षड्यंत्र कोई पल रहा।

क्या सो रहे हैं देश के 

बुद्धिजीवी लोग सब?

या जागता है वीर कोई 

ज्ञान-चक्षु खोलकर?

है धन्य-धन्य भारती की 

बंद क्यों अब आरती?

क्यों किसी कोनें में बैठी 

माँ मेरी चीत्कारती?

हे देश के तुम क्रांतिवीरों 

मौन अब साधो नही,

साधु का तुम वेश धर के 

शस्त्र अब त्यागो नही।

जान लो शकुनि के पासे 

चाल कैसी चल रहे,

कौन से उस लाक्षागृह में 

पांडव फिर से जल रहे,

जागो नगर के लोग सब 

यह खेल तुम भी देख लो,

लाज को फिर द्रौपदी की 

तार -तार होने न दो।

है कौन सी वह ' सोच '

तुम दास जिसके बन गए?

शोषण में क्या आनंद 

जो संघर्ष करना भूलते?

ए वतन के सरफरोश 

देखो झुलसता देश तेरा,

सौहाद्र-प्रेम-आदर्श संग 

भस्म होता देश मेरा,

कोई यहाँ पर लड़ रहा,

कोई वहाँ पर डर रहा,

कोई यहाँ पर बँट रहा,

कोई वहाँ पर कट रहा,

त्राहिमाम-त्राहिमाम 

यह देश मेरा कर रहा,

ए भारती के लाड़लों

क्या कोई माँ की सुन रहा?


#आँचल 

Sunday, 29 May 2022

दोष न डारो राजा पर

नाचे-गावे सब नर-नारी,
ढोल-मंजीरा बजावे भारी,
प्रभु किरपा  से 
घटत-बढ़त सब 
तब राजा को 
जनता क्यों देवे गारी?
हरि इच्छा होइहे 
त जनता होई जइहे सहज भिखारी।
दोष न डारो राजा पर,
राजा त भैया प्रजा  हितकारी।
राजा से बनत देवघर,
भले तोड़े राजा कितने ही घर!
है राजा तो जनता है निडर,
गली-गली आतंक, राजा बेख़बर!
राजा से राज्य में हो बसंत 
सब रावण राज्य में हुए संत!
राजा पर दोष का करो अंत 
देखो सुंदर महके मकरंद,
कष्ट! कहाँ?
प्रजा में आनंद अनंत।
#आँचल

Tuesday, 10 May 2022

है अब भी कोई वीरवान?

 जब समाज में मूल्यों का पतन हो जता है,मर्यादा के बंधन टूट जाते हैं ,सत्य का सूर्य निस्तेज हो जाता है,चारों ओर अँधेरे का साम्राज्य स्थापित हो जता है और धर्म अधर्म के सागर में बस डूबने को होता है तब सदा धर्म के पक्ष में खड़ी होने वाली लेखनी इस काल खंड के नायक को ढूँढ़ते हुए सभी धर्मात्माओ एवं वीरों को ललकारती है और पूछती है कि "  है अब भी कोई वीरवान? " जो इस अंधकार का समूल नाश कर भटके साधकों को उचित दिशा देते हुए मनुष्य को उनका कर्तव्य स्मरण करा सके। बस इसी प्रयास में लेखनी जो कहती है वो अब इन पंक्तियों में पढ़िएगा 🙏





मूल्य हुए सब धूल,

कौन अब धूल को माथे पर धरते?

ढोंगी चंदन घिस-घिस सजते,

बचते भगत शृंगार से,

भजते राम नाम को रावण,

तुलसी डरते राम से,

राम नाम की लाज बचाते 

हनुमान हैरान से,

रट-रट पोथी -पन्ने कितने!

मूरख जब ज्ञानी लगते,

ज्ञान-गुणी जब प्राण बचाकर 

कंद्राओं में छुप बैठे,

ऐसे घनघोर अँधेरे में अब 

वाल्मीकि भी क्या लिखते?

दंतहीन हो गए गणेश 

अब व्यथा धर्म की क्या लिखते?

तब मानव ने भी करुणा त्यागी,

मर्यादा ने चौखट लाँघी,

काली घर में कैद हुई 

और आँगन से तुलसी भागी,

तब शेष राष्ट्र में ' कायर ' हैं बस 

या है अब भी कोई वीरवान?

जिसके एक भरोसे पर 

होगा कल फिर से नव-प्रभात।


#आँचल 

Friday, 6 May 2022

लिखना नही छोड़ा है।



तुमसे ये किसने कहा 
कि मैंने लिखना छोड़ दिया?
प्रयास करने का ढिंढोरा पीट कर प्रयास करना छोड़ दिया!
अरे! ये अफ़वाह किसने उड़ाई 
कि मैंने लिखना छोड़ दिया?
अब ये जज़्बात यूँ ही कहीं आवारो
कि भाँति फिरा थोड़ी किया करते हैं,
ये तो समय के साथी हैं 
बदलते स्वरूप के साथ 
आया-जाया करते हैं।

.... और मैं भी कोई अमीनाबाद की 
तंग दुकानो पर गर्मी और भीड़ से झुंझलाई दुकानदार तो नही 
जो कुछ भी लिखूँ और बेच डालूँ।

अब मेरा नही तो क्या?
मेरी लेखनी का कुछ तो स्वाभिमान है,
इसकी स्याही में दौड़ता ईमान है।
झूठ है कि इससे लिखा नही जाता 
और सच दुनिया से सुना नही जाता।
बस इसी के मद्देनज़र,
मौका-ए-दस्तूर के इंतज़ार में 
कुछ वक्त के लिए लेखनी को रोका है,
लिखना नही छोड़ा है,
लिखना नही छोड़ा है।
#आँचल 

Wednesday, 4 May 2022

ओ एकलव्य की लेखनी



अरे ओ एकलव्य की लेखनी 
अपने दिलोदिमाग को इतना क्यों थकाती हो तुम?
क्या समझती हो
कि तुम्हारे कहे का कोई असर होगा किसी पर?
ये ज़माना तो राजघरानों के बालकों का है,
तुम्हारी कौन सुननेवाला है यहाँ?
आम जनता,गरीब नागरिक 
इनकी भी भला कोई सुनता है!
क्या हुआ?
क्या मेरे कहे पर यकीन नही?
तो जाकर पूछ उन द्रोणाचार्यों से
किंतु सावधान! 
इस सच को बर्दाश्त कर लेना 
कि तुम्हारी यहाँ वाहवाही तो है 
पर कोई सुनवाई नही।
#आँचल 

Tuesday, 3 May 2022

' हरि ' नाम अति मीठो लागे।

 




खीर न पूरी न माखन मिसरी 

कछु स्वाद न मन को भावे री,

' हरि ' नाम अति मीठो लागे 

छक लूँ पर मन न माने री।


सखी री कौन उपाय करूँ?

कौन सो बैद्य बुलाऊँ री?

व्याकुल मन की पीड़ा को जो 

दे पुड़िया निपटावे री।


रह- रह नयन बरसात करे,

सावन देख लजावे री,

डूबी! डूबी! विरह-बाढ में 

हरि बिन कौन बचावे री?


कोई कहे पागल,कोई कहे ढोंगी

जग में भई हँसाई री,

भगत परीक्षा देत न हारी 

हरि के लगी थकाई री।


मेहंदी,काजर,माथे की टिकुरी

कछु न मोहे सुहावे री,

बृज की रज से शृंगार करूँ 

रज ही रज में रम जाऊँ री।


न जागूँ,सोऊँ,गाऊँ,रोऊँ

बस नाम 'हरि' दोहराऊँ री,

अंत समय पिय याद करें तो  

पिय के लोक को जाऊँ री।


#आँचल 

Monday, 2 May 2022

परीक्षा में नकल करने की प्रथा।



मनुष्य के जीवन में परीक्षा का दौर तो अनवरत चलता ही रहता है। अपने सद्गुणों एवं सदविचारों के आधार पर ही मनुष्य इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होता है।इस कारण इन परीक्षाओं का महत्व भी अधिक है किंतु विद्यार्थी जीवन में नियमित रूप से उनकी योग्यता का आकलन करने हेतु ली जाने वाली परीक्षाएँ भी कम महत्वपूर्ण नही होती हैं। अब इन परीक्षाओं की महत्ता का अनुमान आप इस आधार पर लगा लीजिए कि इसमें उत्तीर्ण होने हेतु विद्यार्थी एड़ी-चोटी का जोर लगाने के साथ-साथ नकल करने से भी नही चूकते।

परीक्षा केंद्र में बैठना और तीन घंटे एकाग्रचित्त होकर एक ही विषय पर आधारित प्रश्नों के उत्तर का स्मरण,चिंतन करते हुए अपनी लेखनी को उत्तर-पुस्तिका पर तीव्र गति से घसीटना किसी तपस्या से कम नही होता। इस तपस्या के फलस्वरूप घोषित होने वाले परिणामों की प्रतीक्षा भी किसी वियोगिनी के द्वारा अपने प्रवासी प्रियतम की बाँट जोहने के समान ही प्रतीत होती है। अर्थात सभी विद्यार्थी हुए तपस्वी और परीक्षा केंद्र हुई तपस्थली जहाँ से निकलकर कुछ तपस्वी भविष्य में लोककल्याण हेतु अपना योगदान देंगे। इसी तपस्थली में अक्सर कुछ ऐसे तत्व भी दिखाई पड़ते हैं जो इसकी शांति,शुभता और गरिमा को खंडित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। मार्ग भटक चुके इन तत्वों की मंशा तपस्या अर्थात परीक्षा के शुभ फल को छल से प्राप्त करने की होती है। 

इन छलिया तपस्वियों अर्थात परीक्षार्थियों को हम दो वर्गों में रखकर समझने का प्रयत्न करते हैं। वैसे तो इन तत्वों को छल की समस्त विद्याओं का ज्ञान होता है किंतु प्रथम श्रेणी के अंतर्गत आने वाले तत्वों में ' नौसिखिया ' होने के कारण आत्मविश्वास की जो कमी होती है उसके चलते ये दूसरों की मेहनत पर निर्भर होते हैं।अपने आसपास परिचित-अपरिचित व्यक्तियों से उत्तर जानने के हर संभव प्रयास ये कक्ष में मौजूद परीक्षक से बचते-बचाते करते हैं। कभी दूसरों की उत्तर पुस्तिका में झाँका-ताकी करना,कभी उन्हीं से प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयत्न करना और कभी निर्लज्ज की भाँति दूसरों की उत्तर-पुस्तिका को माँग कर अक्षर-अक्षर छाप लेना। इन छलीय तत्वों को अपने विवेक का सदुपयोग करना नही आता। ये इनकी विनम्रता का ही परिचय है कि ये लोग ये मानकर चलते हैं कि इन्हें कुछ भी नही आता है और इनके इर्द-गिर्द बैठे परीक्षार्थियों को लगभग सबकुछ आता है इसी कारण दूसरों पर निर्भर रहकर ये लोग औरों को स्वयं पर गर्व करने का अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही इनकी चपलता की भी जितनी सराहना की जाए कम है। नकल कराने जैसे निंदनीय कृत्य को बड़ी सहजता ये लोग ' सहायता ' का नाम देकर अन्य तपस्वियों को भी इस छल अथवा दुःसाहस हेतु प्रेरित करते हैं और विवेकहीन लोग इनके भ्रमजाल में आ भी जाते हैं। सहायता के नाम पर कैसा अपराध करने जा रहे हैं इसका आभास तो शायद ही किसी होता हो।
 
इन लोगों पर काल देवता की शायद अनायास ही कृपा होती है तभी तो तीन घंटे के अंतराल में जहाँ कुछ परीक्षार्थियों के पास श्वास लेने की भी फ़ुर्सत नही होती इन लोगों के पास फ़ुर्सत की तमाम घड़ियाँ होती हैं। उन्हीं घड़ियों का लाभ उठाकर इन तत्वों द्वारा सहायता के लेन-देन का कार्य निर्विघ्न संपन्न होता है।

प्रथम श्रेणी से बिलकुल विपरीत हैं द्वितीय श्रेणी के ये छलिया तपस्वी। ये लोग पूर्णतः आत्मनिर्भर होते हैं और छलपूर्वक परीक्षा में उत्तीर्ण होने हेतु अपनी समस्त छल-विद्याओं का सुंदर प्रदर्शन करते हैं। इनकी महत्वकांक्षा चरम पर होती है। प्रथम श्रेणी की भाँति इनके पास काल देवता या किसी अन्य दैवीय शक्ति की कृपादृष्टि तो नही होती किंतु ये अपनी समस्त छल-विद्याओं में इतने पारंगत होते हैं कि बड़े से बड़े नेता भी इनके आगे पानी भरें। परीक्षाकेंद्र में मौजूद परीक्षक की आँखों में धूल झोंकना तो इनके लिए बच्चों का खेल है। वो अलग बात की इन्हें ज्ञात नही कि ये लोग स्वयं की आँखों में धूल झोंककर अंधकूप की ओर बढ़े जा रहे हैं। 

इन छलीय तत्वों अथवा तपस्वियों के ईर्द-गिर्द किसी पुस्तक,पर्ची,इलेक्ट्रोनिक उपकरण या अन्य नकल करने के संसाधनों की मौजूदगी ठीक उसी प्रकार होती है जिस प्रकार स्वयं आपके भीतर एवं आपके ईर्द-गिर्द ईश्वर की अप्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी। इन परीक्षार्थियों को आप कभी भी रंगे हाथों नही पकड़ सकते। वो जो कभी-कभार पकड़े गए बिचारे भूले-भटके इस श्रेणी में आ गए होंगे अन्यथा द्वितीय श्रेणी के इन तपस्वियों को तो बाल्यावस्था से ही इन छल-विद्याओं का अभ्यास होता है। इतने अभ्यस्त होने के कारण इनकी गणना सदैव सभ्य,सुसंस्कृत एवं मेहनतकश व्यक्तियों में होती है। इनका निर्भीक स्वभाव वास्तव में सराहनीय है।

अब विधि का विधान या कलयुग का प्रभाव कहकर हम इस विडंबना को स्वीकार कर सकते हैं कि परीक्षा में नकल करने जैसा निंदित कर्म आज विद्यार्थियों के लिए छींकने -खाँसने, रोने-गाने जैसी सामान्य बात हो गई है। कुछ विद्वानों द्वारा इसे ' कला ' के रूप में स्वीकार किया गया है। कला के रूप में नकल करने के इस निंदित कर्म को इतना यश प्राप्त हुआ है कि इस विधा को सीखने हेतु लोग अब हर संभव प्रयास करने लगे हैं। इसकी कीर्ति के प्रभाव स्वरूप बालकों के प्रथम गुरु होने के नाते माता-पिता स्वयं अपनी संतानों को इस कला की शिक्षा प्रदान करने लग गए हैं। अब इस कला की यशगाथा सुनने के पश्चात आपको यह जानकर तनिक भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि स्वयं चाणक्य के समान कर्मनिष्ठ गुरुओं एवं परीक्षकों ने भी अपने शिष्यों पर कृपादृष्टि रखते हुए उनपर से अपनी दृष्टि हटाकर उन्हें छल-विद्या का सदुपयोग हेतु स्वतंत्र छोड़ दिया है।

नकल करने की इस प्रथा को जिस प्रकार विद्यार्थियों द्वारा निभाया जा रहा है उससे निश्चित तौर पर समाज आगे तो बढ़ रहा है किंतु पतन के मार्ग पर। इस प्रकार के विषय देखने-सुनने में जितने छोटे अथवा साधारण प्रतीत होते हैं इनपर यदि किसी प्रकार का चिंतन न किया जाए, कोई अंकुश न लगाया जाए तो समाज को रोगी बनाने हेतु पर्याप्त हैं। इस प्रकार के सामान्य प्रतीत होने वाले छोटे-छोटे विषयों के आधार पर ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण संभव होता है तथा एक चरित्रवान व्यक्ति ही स्वस्थ समाज के निर्माण का सामर्थ्य रखता है। अर्थात यदि हम एक स्वस्थ,सुंदर समाज की कल्पना कर रहे हैं तो बिना एक क्षण व्यर्थ किए हमारे लिए इन सामान्य प्रतीत होने वाले ' नकल करने ' जैसे निंदनीय कर्मों पर चिंतन-मनन कर इन पर यथाशीघ्र अंकुश लगाना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

#आँचल

Sunday, 24 April 2022

पात्र या दर्शक?


नाटकों के पात्र हैं हम सब,

नही किसी पात्र के दर्शक,

हमारा कर्म है अभिनय,

हमारा धर्म है अभिनय,

हमारे कर्म का,सत्कर्म का,

नीयत,नीतितत्व का एक मात्र वह दर्शक,

जिसको रिझाने के लिए उसने चुना हमको,

हम भूलकर उसको

कहें हर पात्र को दर्शक!

#आँचल

Wednesday, 26 January 2022

जागो हे नवयुग के दाता।




भारत के हे भाग्यविधाता,
जागो हे नवयुग के दाता।

हे भव-भूषण,हे भव-नेता,
जागो हे नव-राग प्रणेता,
सुख की शय्या त्याग करो अभी,
वीरों-सा शृंगार करो अभी,
धारण कर साहस का चोला 
चूमो रे संघर्ष हिंडोला।

भारत के हे भाग्यविधाता,
जागो हे नवयुग के दाता।

आलस तज कर्तव्य को साधो,
सुप्त चेतना से कहो,जागो,
स्व से स्वयं सन्यास धरो अभी,
जप-तप कर चैतन्य बनो अभी,
तारणहार बन भुवन भास्कर 
तमस हरण कर, दो शुभ बेला।

 भारत के हे भाग्यविधाता,
जागो हे नवयुग के दाता।

भुजबल,विवेक के शस्त्र को साधो,
समर शेष है! सज हो साधु,
तन-मन-धन बलिदान करो अभी,
जन-गण का कल्याण करो अभी,
भारती के हे सुयश सारथी 
शौर्य-शिखर पर बढ़ा दे टोला।

भारत के हे भाग्यविधाता,
जागो हे नवयुग के दाता।-2

#आँचल

Tuesday, 11 January 2022

आज हरि मैं दर तेरे आई

 


आज हरि मैं दर तेरे आई। -2

कल इस जग के काम बहुत थे,

राग बहुत,अनुराग बहुत थे 

ता में तेरी सुध बिसराई,

आज हरि मैं दर तेरे आई।-2

हाय!कैसी विपदा आई?

विपदा जो आई सुध तेरी लाई,

सुध आई तब कीरति गाई,

आज हरि मैं दर तेरे आई।-2

#आँचल



Saturday, 1 January 2022

खीर

लिए कटोरी हाथ में 
मन ऐसो सुख पाए,
जैसे तन बैकुंठ में 
आनंद के गुण गाए,
एक चम्मच जो खीर की 
मुँह में मेरे घुल जाए,
मोह-माया सब त्याग के 
हम शंकर सम डमरू बजायें,
धन्य-धन्य बड़ भाग मनुज के 
देवगण पछताए,
दिन भर हरि का नाम भजें 
और खीर प्रसादी पायें।
#आँचल ( खीर प्रेमी 😍)