कोरे पृष्ठों पर अंकित होती
प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,
छंद-छंद कूके कोकिल और
छम-छम नाचे सुंदर बाला।
वह युग कब का बीत चुका है,
यह कविता की बंजर शाला।
यह कविता की बंजर शाला।
उतर रही है हिम शिखरों से
शुभ्र-ज्योत्सना कलकल सरिता,
डग-डग भू-जन पोषित हैं
चखकर ज्ञान-सुधा का प्याला।
वह युग कब का बीत चुका है
सुधा-पुंज अब उगले हाला।
यह कविता की बंजर शाला।
काट रही घनघोर तिमिर को
दो-धारी तलवार-सी तूलिका,
हो भानुसुता-सी उतर रही है
प्राची के उर में रश्मि-माला।
वह युग कब का बीत चुका है,
टूट गई अब रश्मि-माला।
यह कविता की बंजर शाला।
कोरे पृष्ठों पर अंकित होती
प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,
वह युग कब का.......
यह कविता की बंजर शाला।
#आँचल