बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Saturday, 30 November 2024

बार-बार

मैं मरती हूँ बार-बार 
जैसे गिरते हैं पेड़ से पत्ते 
हज़ार बार,
पत्ते मिट्टी में मिलते हैं,
खाद बनते हैं और 
जी उठते हैं बार-बार 
मैं भी एक ही जीवन में 
मरकर जी उठती हूँ 
हज़ार बार।

#आँचल

मृत्यु के बाद जीवन

अनगिनत प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ती मैं 
यकायक मौन हो गई हूँ 
और देख रही हूँ 
उस निरीह,निस्तेज पत्ते को 
अपने संसार से विलग होते,
हर बंधन से छूटते और गिरते 
जैसे गिरता है मनुष्य 
अपने भीतर खड़े स्वप्न, आकांक्षाओं और आशाओं के वृक्ष से,
छूटता है प्रियजनों के बंधनों से
और अलग हो जाता है अपने ही संसार से।
फिर शेष क्या बचता है दोनों में?
केवल मृत्यु!
जो इन्हें अपने गर्भ में लिए 
बहा ले जाती है 
आह!और चाह के 
इस संसार से कहीं दूर 
और हो जाता है सब कुछ मिट्टी!
पर यह अंत नहीं है 
जीवन के उपन्यास का,
कुछ तो रह जाता है शेष भीतर 
जिसकी खाद बनाता है समय 
और करता है फिर एक नई सृष्टि,
नए पल्लव उगते हैं वृक्षों पर,
प्रकृति करती है अभिवादन 
जैसे बार-बार मर कर भी 
मनुष्य करता है स्वागत 
मन के आँगन में खिले 
नव पुष्पों का,
मृत्यु के बाद जीवन का।

#आँचल

अद्वैत

तुम्हें मालूम है कि क्या हो तुम
और क्या है तुममें 'तुम्हारा'?
यह तुम और तुम्हारे के बीच के अंतर को 
क्या तुमने है कभी नापा?
कुछ तो होगा तुममें जो तुमसे अलग होगा 
शायद उसी में तुम्हारा तुम कहीं गुम होगा 
ज़रा खँगालो तो अंदर का समुंदर 
और उसकी सतह पर ढूँढ़ो 
देखो वहीं-कहीं पर
तुम्हारे 'मैं' का बिंब होगा 
बस उसी को देखो,जानो और समझो,
जब जानोगे-पहचानोगे तभी तुम्हारा हर भ्रम दूर होगा 
और तब कुछ भी 
मैं-तुम-तुम्हारा नहीं  
सब 'हमारा' होगा,
'अद्वैत' होगा।
#आँचल

पानी

ढूँढ़ रही हूँ पानी को पानी में,
ढूँढ़ रही हूँ उसका अपना अक्स,
अपनी छवि 
जाने कैसी होगी उसकी अपनी हँसी?
जो सबके रंग में रंग जाती है 
ख़ुद उसका रंग कैसा होगा?
कैसा होगा उसका अपना गीत?
जीवन उसका कैसा होगा?
मैं पानी में पानी की 
जीवन-गाथा ढूँढ़ रही हूँ?
ढूँढ़ रही हूँ पानी में पानी का 
अदृश्य निज-स्वरूप 
जहाँ वह स्वयं से मिलती हो,
ख़ुद ही अपने रंग में रंगती हो,
अपनी ही धुन गाती हो,
मंद-मंद मुसकाती हो।
जब हार गई में ढूँढ़-ढूँढ़ कर 
पर पानी का ऐसा रूप न पाया 
तब आँखों से बहते निर्मल नीर ने 
मुझको पानी का भेद बताया
कि तरल है पानी ऐसे जैसे 
माँ की ममता होती है 
जो भूलकर अपना अहं 
सदा ख़ातिर सबके जीती है,
बहती है बरखा सरिता बन तो 
धरा हरित करती है
और बहे जो आँसू बनकर तो 
अंतर-भाव शुद्ध करती है।
यह पानी की प्रीत रीत 
जो प्रीति बनकर जीती है।

#आँचल