ख़ुदी में मशरूफ़ मुर्दा रिश्तों का यह ज़माना,
यहाँ कहाँ अब मोहब्बत के गुलाब खिलते हैं,
घरों के आँगन भी बँटने लगे हों जहाँ
अब कहाँ वहाँ किसी की छत के मुंडेर जुड़ते हैं
हाँ, मिले थे हम-तुम भी कभी ऐसे जैसे
कहीं कोई दरिया और समुंदर मिलते हैं
पर आज मिले हैं ऐसे-जैसे ब-मुश्किल
किसी नदी के दो किनारे मिलते हैं।
#आँचल