बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Saturday, 14 December 2024

मुर्दा रिश्तों का यह ज़माना


ख़ुदी में मशरूफ़ मुर्दा रिश्तों का यह ज़माना,
यहाँ कहाँ अब मोहब्बत के गुलाब खिलते हैं,
घरों के आँगन भी बँटने लगे हों जहाँ
अब कहाँ वहाँ किसी की छत के मुंडेर जुड़ते हैं
हाँ, मिले थे हम-तुम भी कभी ऐसे जैसे 
कहीं कोई दरिया और समुंदर मिलते हैं 
पर आज मिले हैं ऐसे-जैसे ब-मुश्किल 
किसी नदी के दो किनारे मिलते हैं।

#आँचल



Sunday, 1 December 2024

सीपी में ही रह गए मोती

सीपी में ही रह गए मोती 
कोई न शृंगार हुआ,
बाग़-बाग़ में बिन फूलों के
अबकी बरस मधुमास लगा,
लिखे भाव पर काग़ज़ कोरा,
स्याही का न रंग चढ़ा,
खिली धूप में भी देखो 
अँधियारे ने राज किया,
बिन बसंत के ऋतुएँ बीतीं,
कोकिल का न गान सुना,
झर-झर बीती बरखा फिर भी 
सावन सूखा बीत गया,
नगर-नगर की डगरी नापी 
गाँव हमारा छूट गया,
भोर हुई है जाने कब की!
मन का सूरज डूब गया,
चित है पर चैतन्य नहीं,
बिन जिए ही जीना सीख लिया।

#आँचल 



Saturday, 30 November 2024

बार-बार

मैं मरती हूँ बार-बार 
जैसे गिरते हैं पेड़ से पत्ते 
हज़ार बार,
पत्ते मिट्टी में मिलते हैं,
खाद बनते हैं और 
जी उठते हैं बार-बार 
मैं भी एक ही जीवन में 
मरकर जी उठती हूँ 
हज़ार बार।

#आँचल

मृत्यु के बाद जीवन

अनगिनत प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ती मैं 
यकायक मौन हो गई हूँ 
और देख रही हूँ 
उस निरीह,निस्तेज पत्ते को 
अपने संसार से विलग होते,
हर बंधन से छूटते और गिरते 
जैसे गिरता है मनुष्य 
अपने भीतर खड़े स्वप्न, आकांक्षाओं और आशाओं के वृक्ष से,
छूटता है प्रियजनों के बंधनों से
और अलग हो जाता है अपने ही संसार से।
फिर शेष क्या बचता है दोनों में?
केवल मृत्यु!
जो इन्हें अपने गर्भ में लिए 
बहा ले जाती है 
आह!और चाह के 
इस संसार से कहीं दूर 
और हो जाता है सब कुछ मिट्टी!
पर यह अंत नहीं है 
जीवन के उपन्यास का,
कुछ तो रह जाता है शेष भीतर 
जिसकी खाद बनाता है समय 
और करता है फिर एक नई सृष्टि,
नए पल्लव उगते हैं वृक्षों पर,
प्रकृति करती है अभिवादन 
जैसे बार-बार मर कर भी 
मनुष्य करता है स्वागत 
मन के आँगन में खिले 
नव पुष्पों का,
मृत्यु के बाद जीवन का।

#आँचल

अद्वैत

तुम्हें मालूम है कि क्या हो तुम
और क्या है तुममें 'तुम्हारा'?
यह तुम और तुम्हारे के बीच के अंतर को 
क्या तुमने है कभी नापा?
कुछ तो होगा तुममें जो तुमसे अलग होगा 
शायद उसी में तुम्हारा तुम कहीं गुम होगा 
ज़रा खँगालो तो अंदर का समुंदर 
और उसकी सतह पर ढूँढ़ो 
देखो वहीं-कहीं पर
तुम्हारे 'मैं' का बिंब होगा 
बस उसी को देखो,जानो और समझो,
जब जानोगे-पहचानोगे तभी तुम्हारा हर भ्रम दूर होगा 
और तब कुछ भी 
मैं-तुम-तुम्हारा नहीं  
सब 'हमारा' होगा,
'अद्वैत' होगा।
#आँचल

पानी

ढूँढ़ रही हूँ पानी को पानी में,
ढूँढ़ रही हूँ उसका अपना अक्स,
अपनी छवि 
जाने कैसी होगी उसकी अपनी हँसी?
जो सबके रंग में रंग जाती है 
ख़ुद उसका रंग कैसा होगा?
कैसा होगा उसका अपना गीत?
जीवन उसका कैसा होगा?
मैं पानी में पानी की 
जीवन-गाथा ढूँढ़ रही हूँ?
ढूँढ़ रही हूँ पानी में पानी का 
अदृश्य निज-स्वरूप 
जहाँ वह स्वयं से मिलती हो,
ख़ुद ही अपने रंग में रंगती हो,
अपनी ही धुन गाती हो,
मंद-मंद मुसकाती हो।
जब हार गई में ढूँढ़-ढूँढ़ कर 
पर पानी का ऐसा रूप न पाया 
तब आँखों से बहते निर्मल नीर ने 
मुझको पानी का भेद बताया
कि तरल है पानी ऐसे जैसे 
माँ की ममता होती है 
जो भूलकर अपना अहं 
सदा ख़ातिर सबके जीती है,
बहती है बरखा सरिता बन तो 
धरा हरित करती है
और बहे जो आँसू बनकर तो 
अंतर-भाव शुद्ध करती है।
यह पानी की प्रीत रीत 
जो प्रीति बनकर जीती है।

#आँचल

Thursday, 17 October 2024

ओ शरद के चाँद

ओ शरद के चाँद 
तुमसे रौशन हैं आज 
उम्मीदों के वो मकान 
जो समय के साथ बढ़ते 
इस स्याह अँधेरे में 
गुम हो गए थे,
भूल गए थे कर्तव्य अपना 
और अपनी पहचान
कि उम्मीदों के दीप 
बार-बार जलाते रहना ही 
है उनका काम।
#आँचल 

Monday, 14 October 2024

बुझा दो क्रांति की ये मशालें

बुझा दो क्रांति की ये मशालें 
इन रातों को अँधेरे प्यारे हैं 
झूठ के नशे में धुत है जनता,
इन्हें खर्राटे प्यारे हैं!
क्या कहा? नया कल लाना है!
हा! हा! हा! क्यों ये भ्रम पाला है?
उठते जनाज़े नहीं देखे लगता है 
आदर्शों और उसूलों के 
तभी क्रांति सूझ रही है 
जो बिकती है अब ठेलों पे।
अरे जाओ-जाओ कहीं और टेको 
यह सत्याग्रह की लाठी 
यहाँ रुके तो बन जाओगे 
नोटों वाले गांधी।
और किससे आस लगा बैठे
जो ख़ुद कल के फ़रियादी हैं!
जो अपनी कुटिया आप जला के 
चुपड़ी रोटी खाते हैं!
अरे चिता सजा लो आस की अपनी 
क्योंकि कुछ न होने वाला है,
तुम अनशन कर मर जाओगे,
चौराहों पर सज जाओगे 
पर राजा तो काना है 
कुछ भी न सुनने वाला है।

#आँचल 

Friday, 20 September 2024

गप्प-क्रांति

 


 हो रही तलाश 

अस्त हो चुके सूर्य को ढूँढ़ लाने की 

या चल रही कोई साज़िश 

रश्मियाँ बटोर नया सूर्य बनाने की,

झूठी ही सही, एक पहचान पाने की।

अरे! ये रात के अँधेरे में दिन का उजाला है!

सपना है मीठा या किसी ने भ्रम पाला है?

चलो छोड़ो,जाने भी दो,

व्यर्थ ही माथे पर बल डाला है।

कौन,क्या,क्यों,कब,कहाँ और कैसे?

इन प्रश्नों में उलझे तो सब ऐसे 

जैसे अभी मिल-जुलकर 

कमाल दिखाएँगे,

बदलेंगे सब कुछ! बेहतर 'कल' लाएँगे।

अरे! कुछ नही बस गप्प लड़ाएँगे।


#आँचल 

Friday, 16 February 2024

मूल ' मैं ' की तलाश में

एक मैं हूँ 
और मेरे कितने सारे 'मैं'
जो मुझमें हर क्षण बनते और बिगड़ते हैं 
और रोज़ मुझ ही से लड़ते हैं 
कुछ बिल्कुल मुझसे लगते हैं 
और कुछ मुझसे अलग 
जिनको मैं पहचान ही नही पाती 
इन अनेक 'मैं' में से 
मैं कौन हूँ यह कभी जान नही पाती
पर झूझती हूँ रोज़ इतने सारे 'मैं ' के साथ 
मूल 'मैं' की तलाश में।

#आँचल 

Thursday, 15 February 2024

संसारों के सृजन में गुम होता इंसान

इस एक संसार में रहकर 
अनेक संसारों को जानने की कोशिश
और उन अनेक संसारों के प्रतिसंसार को देखने की कोशिश में रत इंसान 
रच देता है फिर एक संसार 
और उस संसार में फिर अनेक संसारों की रचना में लग जाते हैं कई और इंसान 
और फिर यूँ ही एक संसार में रहकर अनेक संसार को जानने की कोशिश अनवरत चलती ही रहती है 
पर नाकाम हो जाती है कहीं ख़ुद के संसार तक पहुँचने की कोशिश 
और गुम हो जाता है कहीं वह इंसान संसारों की भीड़ में रचते हुए फिर एक नया संसार।
#आँचल