Tuesday, 24 October 2023
Sunday, 1 October 2023
पिता की भूमिका में एक भाई
Saturday, 30 September 2023
Saturday, 9 September 2023
देहवास का मिला है श्राप
Monday, 4 September 2023
मैं सजनी बनी श्याम पिया की
मैं सजनी बनी श्याम पिया की
अद्भुत कर शृंगार चली
मैं सजनी बनी श्याम पिया की।
प्रीत-डगर पे चलते-चलते
झाँझर रीत की तोड़ चली
छूट गई माया कंचन की
वैराग्य की चूनर ओढ़ चली
पंच-रत्न की सजा के वेदी
सप्त-भुवन को लाँघ चली
मैं सजनी बनी श्याम पिया की
अद्भुत कर शृंगार चली।
#आँचल
Wednesday, 9 August 2023
कभी तो वो सावन भी आएगा
कभी तो वो सावन भी आएगा
संदेसा हरि का जो संग लाएगा,
कभी तो ये बदरा से झरते मोती
दिखायेंगे उसकी श्यामल ज्योति,
कभी तो ये व्याकुल चित् भी मोरा
नाचेगा जैसे नाचे ये मयूरा,
कभी तो मिलन की वो रुत आएगी
जब विरह में तपती धरा भीगेगी
और भावों से नीरस हृदय भी मोरा
प्रेम की बरखा में भीगेगा पूरा
आयेंगे तब वो प्रेम-बिहारी
चरण-रज में जिनके रमा मन सखी री,
चरण-रज में जिनके रमा मन सखी री।
#आँचल
Sunday, 23 July 2023
मेरा संकल्प
Friday, 23 June 2023
है कोई जग में परब्रह्म से ऊँचा?
Tuesday, 13 June 2023
यामिनी
यामिनी तो रोज़ चाँद-तारों
की बारात लिए आती है,
पर यह दुनिया ही उसे
देख कर मुँह बनाती है
और नींद का बहाना कर
आँखें मूँद लेती है।
उसके उर में छुपी ममता,
प्रेम और शीतलता को
केवल वही समझ पाता है
जो रात भर उसके
साथ जागता है,
उसे आँख भर निहारता है
और वही इस रहस्य को
भी जानता है कि
'यामिनी' वह विरहिणी है
जो सत्य की पहली किरण को
अपना सर्वस्व समर्पित करने हेतु
रात भर अंधकार से जूझती है।
#आँचल
Thursday, 4 May 2023
त्राहिमाम! त्राहिमाम!
Sunday, 9 April 2023
बदले पृष्ठ इतिहास के
Monday, 13 February 2023
सिर्फ़ इंसान नहीं बन सकते हैं
हम स्त्री-पुरुष हो सकते हैं,
रूप-कुरूप हो सकते हैं,
छोटे-बड़े हो सकते हैं,
जातियों में बँट सकते हैं,
मज़हबों में रंग सकते हैं,
संपत्ति के नाम पर
आपस में लड़ सकते हैं,
ज़मीर को अपने हम
ताक पर रख सकते हैं,
प्रांत,वाद और पंथ आदि
कितने ही पात्रों में ढलने
की कला रखते हैं,
हम कुछ भी कर सकते हैं,
कुछ भी बन सकते हैं
बस हम इंसान
सिर्फ़ इंसान नहीं बन सकते हैं।
#आँचल
Tuesday, 7 February 2023
पुस्तक समीक्षा - बॉयफ्रेंड ऑफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी
समकालीन परिदृश्यों में जन्म लेता साहित्य जब वेदना से संवेदना तक की यात्रा तय कर कल्पना के कोर में हिलोर भरते हुए यथार्थ के धरातल पर अपने पाँव रखता है तब उसके शब्द मानव मन के आँगन में क्रीड़ा करते हुए मानव हृदय में अपना डेरा डालते हैं।हिंदी साहित्य के इतिहास के पृष्ठों को यदि हम पलट कर देखें तो समय की आवश्यकता के अनुरूप साहित्यकारों ने प्रायः कल्पना की लेखनी में यथार्थ की स्याही भरते हुए मानव जीवन के यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है। वर्तमान में भी बहुत से साहित्यकारों ने इसी परंपरा के अनुरूप अपनी कृतियों का सृजन किया है।
हाल ही में मुझे भी एक ऐसे उपन्यास को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ जिसकी कथा कल्पित होते हुए भी वर्तमान परिदृश्यों का यथार्थ चित्रण करती है।इस उपन्यास का शीर्षक है "बॉयफ्रेंड ऑफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी"।युवा लेखक 'अश्वथ प्रियदर्शी' जी का यह प्रथम उपन्यास राजमंगल प्रकाशन द्वारा अक्टूबर २०२२ में आकर्षक कवर पेज के साथ प्रकाशित हुआ।१९५ पृष्ठों के इस उपन्यास का मूल्य मात्र २२९ रुपए है।
अश्वथ प्रियदर्शी जी का जन्म बनारस के ही एक मध्यम वर्गीय किसान परिवार में हुआ। बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ही उन्होनें विज्ञान विषय से परास्नातक की डिग्री लेते हुए आनुवांशिक विषय में दक्षता हासिल की। आनुवांशिकी के अध्ययन के दौरान ही उनका रुझान साहित्य की ओर भी होने लगा।साहित्य के प्रति प्रियदर्शी जी की रुचि का ही परिणामस्वरूप है यह उपन्यास "बॉयफ्रेंड ऑफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी"।
इस उपन्यास के मुख्य पात्र के रूप में है 'हसमुख' जो इक्कीसवी सदी के उन युवाओं का या यूँ कहें कि वाहट्सप्प युगीन उन बॉयफ्रेंडों का प्रतिनिधित्व करता है जो फ़िल्म जगत का अनुकरण करते-करते न प्रेम को ठीक से समझ पाते हैं और न अपने कर्तव्यों का ही उन्हें बोध होता है।उनके इस कर्तव्यविमुखता का प्रभाव उनके पारिवार जनों पर पड़ता है जो अपने बच्चों से ढेरों उम्मीदें लगाते हैं। हसमुख भी लखनऊ के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से आता है जिससे उसके पिता बार-बार आस लगाते हैं और निराश होते हैं।अपने पिता की इस निराशा को जानकार भी अनजान हसमुख अपने मित्र नटवर के साथ लखनऊ की गलियों में भटकता एक युवती के बाह्य सौंदर्य पर मोहित हो जाता है।यही मोह उसके जीवन की रेलगाड़ी को बनारस की ओर ले जाता है जहाँ हसमुख अपने पिता से मिली फटकार के बाद घर त्याग बनारस में अपने मामा के घर में ठहरता है।
यहाँ भी दिशाहीन हसमुख पुनः एक युवती के आकर्षण में भटकते हुए छात्र राजनीति के मायाजाल में फँस जाता है और इस दलदल में उतरने के कारण उसके व्यक्तित्व पर भी अनुचित प्रभाव पड़ता है।जबतक वह इस मकड़जाल से मुक्त होता है तबतक बहुत कुछ वह खो चुका होता है।लखनऊ वापसी पर एक ओर उसे अपने पिता के स्वर्गवास की सूचना मिलती है तो दूसरी ओर विकलांग जीवन किंतु तब तक वह मानसिक विकलांगता से मुक्त हो चुका होता है और चाय की दुकान लगा अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता है।
प्रियदर्शी जी ने उपन्यास के कथानक को सहज एवं साधारण रखते हुए पात्रों का चुनाव भी इसी हिसाब से किया है।उपन्यास का मुख्य पात्र हसमुख उपन्यास के शीर्षक के साथ पूरा न्याय करते हुए इक्कीसवी सदी के उस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो फ़ैशन और फिल्मी दुनिया के अनुकरण के चलते स्वयं के व्यक्तित्व का ही गला घोटने लगते हैं। आलस्य एवं अकर्मण्यता का भाव इन्हें देश एवं परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख कर देता है और प्रायः ये कुसंगति का शिकार हो यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं।अनुचित मार्ग का अनुसरण करते-करते कभी इन युवाओं में स्वयं को सुधारने का भाव आता भी है तो नटवर जैसे उनके मित्र उन्हें पुनः भटका देते हैं।
उपन्यास के अन्य सहायक एवं गौण पात्रों की यदि बात करें तो बेचनलाल और छन्नुलाल जैसे पात्र निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के आर्थिक एवं सामाजिक रूप से तनावग्रस्त जीवन की झाँकी प्रस्तुत करते हैं।घर की चार दीवारों के बीच गृहस्थी की बैलगाड़ी खींचते-खींचते कुंठाग्रस्त हो चुकी भारतीय गृहणियों का ही स्वरूप हैं मंथरा और कम्मो।नारी सशक्तीकरण एवं स्त्री विमर्श की पोथियों ने आधुनिक युग की स्त्रियों को जो स्वतंत्र रूप प्रदान किया है उसके अनेक स्वरूप वर्तमान में हमे देखने को मिलते हैं।भिन्न व्यक्तित्व की मिस घिन्नी एवं सुकन्या भी इन्हीं विमर्शों से निकले दो चरित्र हैं।शासन-प्रशासन में अक्सर रसिक महाराज जैसे भ्रष्ट व्यक्तित्वों एवं शोषकों को देखने के कारण हम दारोगा एवं छेदीलाल जैसे संवेदनशील,ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्वों के प्रति भी एक जैसी ही धारण बना लेते हैं। लेखक ने हमारी इसी धारण पर चोट करते शासन-प्रशासन के नकारात्मक पक्ष के साथ-साथ सकारात्मक पक्षों को भी उद्घाटित किया है।
किसी भी कथा एवं उपन्यास में संवादों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।प्रस्तुत उपन्यास "बॉयफ्रेंड ऑफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी" में भी लेखक अश्वथ प्रियदर्शी जी ने जिस प्रकार संवादों का उपयोग किया है उससे एक उपन्यासकार के रूप में उनकी प्रतिभा का परिचय मिलता है। इस उपन्यास के संवाद लंबे और उबाऊ न होते हुए रोचक और कसे हुए हैं। इन संवादों के माध्यम से लेखक ने कभी पाठकों को गुदगुदाने का प्रयास किया है तो कभी उन्हें गहन चिंतन में डाला है।उदाहरणार्थ बनारस में एक सिपाही द्वारा हसमुख को गंगा की दुर्दशा का बोध कराते हुए लेखक ने पाठकों का ध्यान प्रदूषित हो रही नदियों की ओर मोड़ा है-
"क्यूँ गंगा नहाने आया है क्या? यहाँ गंगा नहाने का अब कोई फ़ायदा नही। हम तो खुद ही गंगा के पानी को केवल चम्मच से छिड़ककर काम चलाते हैं तो तू कौन सा इतना भारी पाप धोने चला आया है काशी में!"
इन्हीं संवादों के माध्यम से लेखक ने उपन्यास के पात्रों के चरित्र को उद्घाटित करते हुए समाज के उस स्वरूप को भी दर्शाया है जिसमें नैतिकता का लोप होता जा रहा है,संवेदनाएँ नष्ट होती जा रही हैं और आर्थिक भेद या तंगी रिश्तों की गरमाहट को इस हद तक समाप्त करती जा रही है कि मुश्किल समय में भी अब कोई किसी के साथ खड़ा नहीं दिखाई देता।वैसे तो उपन्यास के अनेक प्रसंगों में लेखक ने समाज के इस रूप को उजागर किया है किंतु उदाहरण हेतु हम उस प्रसंग को देखते हैं जहाँ क्म्मो अपने पति से स्पष्ट शब्दों में कहती है -
"तुम तो ऐसे ही कहते रहना।ठीक! बारह-सौ की मुनीमगीरी और ख़र्चा हज़ार। ऊपर से आए दिन मेहमानों का आना-जाना। तुम तो रिश्ता निभाते हो लेकिन उनकी सोचो! तुम्हारे जीजा-दीदी ने हमारा हाल कभी पूछा पिछले बरस जब तुम खटिया पर पड़े रहे तो किसी ने खोज-खबर ली तुम्हारी? सबने जेबें झाड़ लीं। मुँह-पिटाके तुम्हें ख़ैराती अस्पताल में भर्ती करवाए रहे तब ई नासपीटे रिश्तेदारों को तुम्हारी याद आई रही!अब भले-चंगे हम खा-पी रहे हैं तब भेज दिया अपने लौंडे को कुलही गुड़-गोबर करने के लिए।"
कहते हैं कि "साहित्य समाज का दर्पण है।"प्रस्तुत उपन्यास में भी लेखक ने कभी पात्रों के माध्यम से तो कभी स्वयं ही पाठकों से सीधा संवाद करते हुए इस समाज के प्रतिबिंब को उपन्यास में हूबहू उतारने का सफल प्रयास किया है।पाठकों से इन संवादों के दौरान लेखक ने कभी व्यवस्थाओं पर गंभीर प्रश्न उठाए तो कभी सामाजिक,राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों पर तंज कसा है।कभी हर बात में 'ऍड्जस्ट' करती जनता के कष्टों को उजागर किया है तो कभी,विश्वनाथ कॉरिडोर के ड्रीम प्रोजेक्ट तले घुटते स्वप्नों की ओर पाठकों का ध्यान खींचा है।इन्हीं संवादों के माध्यम से लेखक कभी जनता की कमाई से अपना पेट भरने वाले भ्रष्ट नेताओं पर व्यंग्य बाणों से चोट करते हैं तो कभी 'छुच्छी' जैसे प्रसंगों के माध्यम से नेताओं को जनता के बीच उतर उनकी समस्या को समझने की सलाह देते हैं।प्रियदर्शी जी के पाठकों से किए गए इन संवादों में हास्य भी है और मर्म भी, चिंता भी है और चिंतन भी जो उम्मीदों के झूठे आसमान में उड़ रहे पाठकों को धरा पर उतारने का कार्य करती है। उदाहरणार्थ -
"कहते हैं,हमारे देश में आदर्शवादी बातें उन्हीं महानुभावों को शोभा देती हैं जिनकी जेबों में लुटाने के लिए पर्याप्त पैसा हो। एक लुटे हुए व्यक्ति के मुँह से आदर्श के दो-चार शब्द भी विष के प्याले सदृश प्रतीत होते हैं।"
आज जब झूठ के पंख फैलाने के कारण चारों ओर अंधकार छाने लगा है तब एक दार्शनिक की भाँति प्रियदर्शी जी टूटी साइकल पर सवार सत्य और झूठ के मध्य के भावी परिणाम को उद्घाटित करते हुए कहते हैं -
"सत्य का ईंधन कभी खत्म नहीं होगा परंतु झूठ के डीज़ल से चलने वाली बाइक एक न एक दिन अवश्य रुक जाएगी। तब तक सत्य अपनी उतरी हुई साइकल की चैन बनाने व्यस्त रहेगा। संभव है तबतक झूठ की यह डीज़लवाली बाइक हमारे शुद्ध वातावरण में इतना विष घोल चुकी होगी कि सत्य रुपी साइकल के पहीए में अशुद्ध हवा भरने के अलावा हमारे पास कोई और दूसरा विकल्प शेष नहीं बचेगा।"
३२ भागों में बँटे इस उपन्यास में अनेक प्रसंग हैं जो वर्ष २०१७-१८ की समकालीन परिदृश्यों के साथ मुख्य कथा से तालमेल बैठाते हुए स्वभाविक रूप धारण करते हैं। उत्तर प्रदेश की भिन्न सभ्यता एवं संस्कृति वाले दो नगर लखनऊ एवं बनारस की छवियों को तो उपन्यास में लेखक ने बड़ी कुशलता से खींचा है किंतु लेखक के मूलतः बनारस से होने के कारण उपन्यास में इस नगर की छवि अधिक सजीव हो उठी है। वैसे तो उपन्यास की मूल कथा ने वर्ष भर की यात्रा तय की है किंतु लेखक ने अगहन से फाल्गुन तक के महीनों का ही अधिक किंतु सुंदर वर्णन किया है।
कथा के शिल्प सौंदर्य पर यदि दृष्टि डालें तो व्यंग्यात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास की भाषा मुहावरेदार है। हिन्दी,अंग्रेजी,उर्दू और फ़ारसी शब्दों के प्रयोग के साथ ठेठ बनारसी शब्दावली ने उपन्यास को चटक रंग प्रदान करते हुए इसके रूप को और सँवारा है।
औपन्यासिक तत्वों के आधार पर भी यदि परखा जाए तो यह पुस्तक उपन्यास रूप में हर कसौटी पर खरी उतरती है।अतः साहित्यिक दृष्टि से भी प्रियदर्शी जी अपने प्रथम प्रयास में सफल हुए हैं।
आज जब अनेक साहित्यकारों की लेखनी पाठकों को बाँधे रखने के उद्देश्य के चलते निरुद्देश्य हो जाती है तब अश्वथ प्रियदर्शी जी ने अपने प्रथम उपन्यास में ही अनेक लक्ष्यों को साधने का प्रयास किया है। किंतु इस प्रयास के चलते इसकी कथा कहीं भी उबाऊ नहीं हुई है अपितु प्रत्येक पृष्ठ के साथ पाठकों की जिज्ञासा बढ़ती ही गई है जिसने अंत तक पाठकों को बाँधे रखा है। विषयों की बहुलता के चलते उपन्यास की रोचकता पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ा है।
देखा जाए तो पुस्तक रूप में प्रियदर्शी जी का यह उपन्यास एक पिटारा है जिसमें मानव जीवन के विविध रंग हैं। इसमें हास्य-विनोद के साथ मार्मिकता भी है,जीवन की तमाम उलझनों के साथ कुछ सुलझे व्यक्तित्व भी हैं,खारापन है तो कुछ मिठास भी है,प्रेम भी है और राजनीति भी।संक्षेप में कहूँ तो इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने समकालीन पारिस्थितियों का अवलोकन करते हुए भारतीय रीति,प्रीति और नीति का सजीव चित्रण किया है।
-आँचल
Saturday, 4 February 2023
आस्था
Thursday, 2 February 2023
Tuesday, 31 January 2023
बाल साहित्य की उपेक्षा क्यों?
हिंदी साहित्य में बाल साहित्य का सदा से अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पर अफ़सोस आज के इलेक्ट्रानिक युग में ये बाल मन तक पहुँच नही पा रहा और जिसके कई दूरगामी परिणाम अक्सर युवा पीढ़ी को भोगने पड़ते हैं। एक दौर था जब बाल साहित्य बच्चों में काफ़ी प्रचलित था। जातक कथाएँ हो,पंचतंत्र या चंपक हो या फ़िर चाचा चौधरी और ना जाने कितनी ही कहानी और कविता संग्रह जो बाल मन को रंजित करते हुए उनकी सृजनात्मक क्षमता को बढ़ाते थे और कल्पना लोक का विस्तार करते थे।पर अब डिजिटल मीडिया से जुड़ने के कारण बच्चों को सब पका पकाया मिलता है जो बहुत हद तक बच्चों की कल्पना शक्ति को क्षीण कर रहा है।बहुत से विदेशी कार्टून सीरीज जैसे डोरेमॉन,शिनचैन, एवेंजर्स और ऑनलाइन लाइन गेम्स का भी हमारे नन्हे पाठकों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है जो ना केवल इन्हें साहित्य से अपितु हमारी संस्कृती और सभ्यता से भी कोसों दूर कर रहा है।
बाल साहित्य जहाँ एक ओर बच्चों में अध्ययन के प्रति रुची बढ़ाता है और भाषिक विकास भी करता है वही दूसरी ओर बच्चों के मन में मूल्यों को स्थापित करता है,नैतिक शिक्षा प्रदान करता है और उचित,अनुचित का भेद सिखाते हुए एक आदर्श चरित्र का निर्माण करता है। ये बच्चों को हमारी परंपराओं से जोड़ता है,उन्हें संस्कारित करता है और यही उन्हें संवेदनशील भी बनाता है किंतु यदि हम बचपन को बाल साहित्य से विलग करते हैं तो इसके दुष्परिणाम हमे अख़बारों में दिखाई देते हैं जो युवाव्स्था में अपराधों की बढ़ती संख्या की पुष्टि करता है।इसके साथ ही बाल साहित्य से अछूता युवा जब गंभीर साहित्य को पढ़ता है तो कई बार वो उसके मन को रंजित करने के स्थान पर उद्विग्न करता है जो कई विकार को जन्म देता है। इसका कारण मात्र यह है कि बाल साहित्य की कोमलता,सरलता में निहित ज्ञान की नीव उसके मन में रखी नही गई जो गंभीरता को धारण कर सके।
आज साहित्य की दुनिया में हम अगर बाल साहित्य को उपेक्षित देख रहे तो इसका एक बड़ा कारण बाल पाठकों की कमी भी है।अब हालात ये है कि जहाँ एक ओर बाज़ारों में बाल साहित्य के नाम पर सन्नाटा पसरा है तो वही युवा लेखकों में भी इसके प्रति कोई रुची दिखायी नही पड़ती। प्रायः वे इसकी कोमलता,सरलता और सहजता की माँग के कारण इसे हलके में लेते हैं और इसमें किसी प्रकार की शब्द शक्ति,रचना कौशल या अन्य सृजनात्मक क्षमता की अधिक आवश्यकता नही समझते। किंतु सत्य तो यह है कि सरल शब्दों का चयन करते हुए बाल मन को छूती,उन्हें रंजित करती शिक्षाप्रद रचना का सृजन बेहद चुनौतीपूर्ण है।
आज एकल परिवार के दौर में जब बच्चे नानी - दादी के उन किससे कहानियों से दूर हैं जो उनके कोमल और जिज्ञासु मन को संस्कारों से पोषित करती थी तब बाल साहित्य की महत्ता बच्चों के जीवन में और बढ़ जाती है। आज जब नौकरीपेशा माता -पिता भी अपने बच्चों पर उचित ध्यान नही दे पाते और परिणाम स्वरूप बच्चे अकेले ही टी. वी. और मोबाइल पर कुछ भी देख सीख रहे होते हैं तब अभिभावकों और शिक्षकों की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो बच्चों को बाल साहित्य की ओर उन्न्मुख करें। इससे बच्चों को उचित दिशा तो मिलेगी ही साथ ही पौराणिक कथाओं और इतिहास में भी उनकी रुची बढ़ेगी और साथ ही प्रकृति की ओर इनका लगाव होगा और इसमें निहित सीख इन्हें भविष्य में आने वाले संघर्षों से लड़ने में सहायक होगी। इसके साथ ही बाल साहित्य स्वस्थ बच्चों के साथ एक स्वस्थ समाज का भी निर्माण करेगा।
-आँचल
दिनांक -23/10/2019
(अक्षय गौरव ई-पत्रिका - जुलाई -दिसम्बर२०१९ के बाल साहित्य खंड में प्रकाशित )
Thursday, 19 January 2023
जग रही हूँ मैं अकेली या कहीं कोई और भी है?
जग रही हूँ मैं अकेली
या कहीं कोई और भी है?
यामिनी से जूझते
उस सुनहरे भोर का
क्या कहीं कोई ठौर भी है?
है कहीं कोई हृदय
व्याकुल जगत संताप से,
या सकल संसार पुलकित
माया के मधुपाश में?
हास में,विलास में,
जागा तमस उल्लास में!
उन्माद में मनु ने स्वयं को
झोंका समर के त्रास में!
ग्रास है सबकुछ समय का
और मेरे हाथ मात्र प्रयास है।
लड़ रही हूँ मैं अकेली
या साथ कोई विश्वास है?
द्वंद्व में उलझी हुई हूँ,
भूमि पे रण के खड़ी हूँ,
रिक्त है तरकश मेरा,
है सामने लश्कर खड़ा,
नातों के बेड़ी बाँधकर
कर्तव्य पीछे खींचता,
साहस है मेरा छूटता,
सम्मान भी अब डोलता,
प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ
झूठ के प्रहार का,
मैं हार कर भी लड़ रही हूँ!
क्या अंत है इस रात का?
सुन रहा है क्या कोई
प्रभात ये चीत्कारता!
घुट-घुट बुझने लगा है
दीप सत्य-विश्वास का।
जग रही हूँ मैं अकेली
या कहीं कोई और भी है?
सहेजता वह दीप-ज्योत
प्रहरी कहीं कोई और भी है?
प्रलय के आभास से,
घनघोर अंधकार से,
डर रही हूँ मैं अकेली
या संघर्ष में कोई और भी है?
#आँचल