एक रोटी चार टुकड़े बाँटकर खाते रहे,
हम तो अपना पेट यूँ ही काटकर जीते रहे।
ए गुले गुलज़ार तेरी थाल में बोटी सजी,
मांस अपना दे के तेरा पेट पालते रहे।
है सितम का घात दुगना,आग भी ठंडी पड़ी,
ओढ़कर खुद को ही हमने सर्द से है जंग लड़ी।
ताप लो तुम हाथ अपने,कौडे की लपटें उठी,
तेरी ख़िदमत को ही तो झोपड़ी मेरी जली।
आँसुओं में डूबती है बस्तियाँ ईमान की,
जल चुकी हैं पोथियाँ जबसे धर्म की,ज्ञान की।
ए गुले गुलज़ार तेरे सिर पे जो पगड़ी सजी,
दांव पर रख के वतन को सोने की कलगी लगी।
दीन भी क्या दीन जाने? रूह तक गिरवी पड़ी,
साज़िशों की आँधियों में सरज़मीन जिसकी लुटी।
खेलते हो खेल तुम जो तख़्त की गर्दिश है ये,
बिक रही हैं लाशें जो,गफ़लत में हम बैठे नही।
#आँचल