बुझा दो क्रांति की ये मशालें
इन रातों को अँधेरे प्यारे हैं
झूठ के नशे में धुत है जनता,
इन्हें खर्राटे प्यारे हैं!
क्या कहा? नया कल लाना है!
हा! हा! हा! क्यों ये भ्रम पाला है?
उठते जनाज़े नहीं देखे लगता है
आदर्शों और उसूलों के
तभी क्रांति सूझ रही है
जो बिकती है अब ठेलों पे।
अरे जाओ-जाओ कहीं और टेको
यह सत्याग्रह की लाठी
यहाँ रुके तो बन जाओगे
नोटों वाले गांधी।
और किससे आस लगा बैठे
जो ख़ुद कल के फ़रियादी हैं!
जो अपनी कुटिया आप जला के
चुपड़ी रोटी खाते हैं!
अरे चिता सजा लो आस की अपनी
क्योंकि कुछ न होने वाला है,
तुम अनशन कर मर जाओगे,
चौराहों पर सज जाओगे
पर राजा तो काना है
कुछ भी न सुनने वाला है।
#आँचल
वाह!प्रिय आँचल ,बेहतरीन सृजन!
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