नाचे-गावे सब नर-नारी,
ढोल-मंजीरा बजावे भारी,
प्रभु किरपा से
घटत-बढ़त सब
तब राजा को
जनता क्यों देवे गारी?
हरि इच्छा होइहे
त जनता होई जइहे सहज भिखारी।
दोष न डारो राजा पर,
राजा त भैया प्रजा हितकारी।
राजा से बनत देवघर,
भले तोड़े राजा कितने ही घर!
है राजा तो जनता है निडर,
गली-गली आतंक, राजा बेख़बर!
राजा से राज्य में हो बसंत
सब रावण राज्य में हुए संत!
राजा पर दोष का करो अंत
देखो सुंदर महके मकरंद,
कष्ट! कहाँ?
प्रजा में आनंद अनंत।
#आँचल
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 30 मई 2022 को 'देते हैं आनन्द अनोखा, रिश्ते-नाते प्यार के' चर्चा अंक 4446 पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
सटीक
ReplyDeleteअंधेर नगरी, चौपट्ट राजा !
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सटीक सृजन
ReplyDeleteकैसा दोष?कैसी गारी?
ReplyDeleteजब परजा चुने है,बराम बारी !!
बहुत सुन्दर
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