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Monday 2 May 2022

परीक्षा में नकल करने की प्रथा।



मनुष्य के जीवन में परीक्षा का दौर तो अनवरत चलता ही रहता है। अपने सद्गुणों एवं सदविचारों के आधार पर ही मनुष्य इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होता है।इस कारण इन परीक्षाओं का महत्व भी अधिक है किंतु विद्यार्थी जीवन में नियमित रूप से उनकी योग्यता का आकलन करने हेतु ली जाने वाली परीक्षाएँ भी कम महत्वपूर्ण नही होती हैं। अब इन परीक्षाओं की महत्ता का अनुमान आप इस आधार पर लगा लीजिए कि इसमें उत्तीर्ण होने हेतु विद्यार्थी एड़ी-चोटी का जोर लगाने के साथ-साथ नकल करने से भी नही चूकते।

परीक्षा केंद्र में बैठना और तीन घंटे एकाग्रचित्त होकर एक ही विषय पर आधारित प्रश्नों के उत्तर का स्मरण,चिंतन करते हुए अपनी लेखनी को उत्तर-पुस्तिका पर तीव्र गति से घसीटना किसी तपस्या से कम नही होता। इस तपस्या के फलस्वरूप घोषित होने वाले परिणामों की प्रतीक्षा भी किसी वियोगिनी के द्वारा अपने प्रवासी प्रियतम की बाँट जोहने के समान ही प्रतीत होती है। अर्थात सभी विद्यार्थी हुए तपस्वी और परीक्षा केंद्र हुई तपस्थली जहाँ से निकलकर कुछ तपस्वी भविष्य में लोककल्याण हेतु अपना योगदान देंगे। इसी तपस्थली में अक्सर कुछ ऐसे तत्व भी दिखाई पड़ते हैं जो इसकी शांति,शुभता और गरिमा को खंडित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। मार्ग भटक चुके इन तत्वों की मंशा तपस्या अर्थात परीक्षा के शुभ फल को छल से प्राप्त करने की होती है। 

इन छलिया तपस्वियों अर्थात परीक्षार्थियों को हम दो वर्गों में रखकर समझने का प्रयत्न करते हैं। वैसे तो इन तत्वों को छल की समस्त विद्याओं का ज्ञान होता है किंतु प्रथम श्रेणी के अंतर्गत आने वाले तत्वों में ' नौसिखिया ' होने के कारण आत्मविश्वास की जो कमी होती है उसके चलते ये दूसरों की मेहनत पर निर्भर होते हैं।अपने आसपास परिचित-अपरिचित व्यक्तियों से उत्तर जानने के हर संभव प्रयास ये कक्ष में मौजूद परीक्षक से बचते-बचाते करते हैं। कभी दूसरों की उत्तर पुस्तिका में झाँका-ताकी करना,कभी उन्हीं से प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयत्न करना और कभी निर्लज्ज की भाँति दूसरों की उत्तर-पुस्तिका को माँग कर अक्षर-अक्षर छाप लेना। इन छलीय तत्वों को अपने विवेक का सदुपयोग करना नही आता। ये इनकी विनम्रता का ही परिचय है कि ये लोग ये मानकर चलते हैं कि इन्हें कुछ भी नही आता है और इनके इर्द-गिर्द बैठे परीक्षार्थियों को लगभग सबकुछ आता है इसी कारण दूसरों पर निर्भर रहकर ये लोग औरों को स्वयं पर गर्व करने का अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही इनकी चपलता की भी जितनी सराहना की जाए कम है। नकल कराने जैसे निंदनीय कृत्य को बड़ी सहजता ये लोग ' सहायता ' का नाम देकर अन्य तपस्वियों को भी इस छल अथवा दुःसाहस हेतु प्रेरित करते हैं और विवेकहीन लोग इनके भ्रमजाल में आ भी जाते हैं। सहायता के नाम पर कैसा अपराध करने जा रहे हैं इसका आभास तो शायद ही किसी होता हो।
 
इन लोगों पर काल देवता की शायद अनायास ही कृपा होती है तभी तो तीन घंटे के अंतराल में जहाँ कुछ परीक्षार्थियों के पास श्वास लेने की भी फ़ुर्सत नही होती इन लोगों के पास फ़ुर्सत की तमाम घड़ियाँ होती हैं। उन्हीं घड़ियों का लाभ उठाकर इन तत्वों द्वारा सहायता के लेन-देन का कार्य निर्विघ्न संपन्न होता है।

प्रथम श्रेणी से बिलकुल विपरीत हैं द्वितीय श्रेणी के ये छलिया तपस्वी। ये लोग पूर्णतः आत्मनिर्भर होते हैं और छलपूर्वक परीक्षा में उत्तीर्ण होने हेतु अपनी समस्त छल-विद्याओं का सुंदर प्रदर्शन करते हैं। इनकी महत्वकांक्षा चरम पर होती है। प्रथम श्रेणी की भाँति इनके पास काल देवता या किसी अन्य दैवीय शक्ति की कृपादृष्टि तो नही होती किंतु ये अपनी समस्त छल-विद्याओं में इतने पारंगत होते हैं कि बड़े से बड़े नेता भी इनके आगे पानी भरें। परीक्षाकेंद्र में मौजूद परीक्षक की आँखों में धूल झोंकना तो इनके लिए बच्चों का खेल है। वो अलग बात की इन्हें ज्ञात नही कि ये लोग स्वयं की आँखों में धूल झोंककर अंधकूप की ओर बढ़े जा रहे हैं। 

इन छलीय तत्वों अथवा तपस्वियों के ईर्द-गिर्द किसी पुस्तक,पर्ची,इलेक्ट्रोनिक उपकरण या अन्य नकल करने के संसाधनों की मौजूदगी ठीक उसी प्रकार होती है जिस प्रकार स्वयं आपके भीतर एवं आपके ईर्द-गिर्द ईश्वर की अप्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी। इन परीक्षार्थियों को आप कभी भी रंगे हाथों नही पकड़ सकते। वो जो कभी-कभार पकड़े गए बिचारे भूले-भटके इस श्रेणी में आ गए होंगे अन्यथा द्वितीय श्रेणी के इन तपस्वियों को तो बाल्यावस्था से ही इन छल-विद्याओं का अभ्यास होता है। इतने अभ्यस्त होने के कारण इनकी गणना सदैव सभ्य,सुसंस्कृत एवं मेहनतकश व्यक्तियों में होती है। इनका निर्भीक स्वभाव वास्तव में सराहनीय है।

अब विधि का विधान या कलयुग का प्रभाव कहकर हम इस विडंबना को स्वीकार कर सकते हैं कि परीक्षा में नकल करने जैसा निंदित कर्म आज विद्यार्थियों के लिए छींकने -खाँसने, रोने-गाने जैसी सामान्य बात हो गई है। कुछ विद्वानों द्वारा इसे ' कला ' के रूप में स्वीकार किया गया है। कला के रूप में नकल करने के इस निंदित कर्म को इतना यश प्राप्त हुआ है कि इस विधा को सीखने हेतु लोग अब हर संभव प्रयास करने लगे हैं। इसकी कीर्ति के प्रभाव स्वरूप बालकों के प्रथम गुरु होने के नाते माता-पिता स्वयं अपनी संतानों को इस कला की शिक्षा प्रदान करने लग गए हैं। अब इस कला की यशगाथा सुनने के पश्चात आपको यह जानकर तनिक भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि स्वयं चाणक्य के समान कर्मनिष्ठ गुरुओं एवं परीक्षकों ने भी अपने शिष्यों पर कृपादृष्टि रखते हुए उनपर से अपनी दृष्टि हटाकर उन्हें छल-विद्या का सदुपयोग हेतु स्वतंत्र छोड़ दिया है।

नकल करने की इस प्रथा को जिस प्रकार विद्यार्थियों द्वारा निभाया जा रहा है उससे निश्चित तौर पर समाज आगे तो बढ़ रहा है किंतु पतन के मार्ग पर। इस प्रकार के विषय देखने-सुनने में जितने छोटे अथवा साधारण प्रतीत होते हैं इनपर यदि किसी प्रकार का चिंतन न किया जाए, कोई अंकुश न लगाया जाए तो समाज को रोगी बनाने हेतु पर्याप्त हैं। इस प्रकार के सामान्य प्रतीत होने वाले छोटे-छोटे विषयों के आधार पर ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण संभव होता है तथा एक चरित्रवान व्यक्ति ही स्वस्थ समाज के निर्माण का सामर्थ्य रखता है। अर्थात यदि हम एक स्वस्थ,सुंदर समाज की कल्पना कर रहे हैं तो बिना एक क्षण व्यर्थ किए हमारे लिए इन सामान्य प्रतीत होने वाले ' नकल करने ' जैसे निंदनीय कर्मों पर चिंतन-मनन कर इन पर यथाशीघ्र अंकुश लगाना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।

#आँचल

7 comments:

  1. यू तो हर परीक्षा केंद्र के बाहर बड़े बड़े इश्तिहार लगाए जाते हैं कि " परीक्षा मे नकल करना पाप है, सामाजिक बुराई है " किंतु इसका पालन कहीं भी नहीं होता है ।
    इसका पालन न ही परीक्षा केंद्र मे अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे अध्यापक करते हैं और न ही परीक्षा केंद्र मे पास होने की लालसा से बैठे छात्र ।
    "रघुकुल रीति सदा चली आई" की तर्ज पर ही नकल करने की प्रथा भी चली आ रही है, किंतु इसका जिम्मेदार सिर्फ छात्रों को ठहराना उतना ही न्यायसंगत है जितना कैकई को बिना जाने राम के वनवास के कारण दोषी ठहराना ।
    मै नकल करने वाले छात्रों का पक्ष नहीं ले रहा किंतु सत्य तो यही है कि जितना हाथ नकल करने वाले छात्रों का होता है शायद उतना ही अध्यापको का भी।
    ऐसे कई प्रायवेट स्कूल हैं जिनमे प्रवेश के वक़्त ही यह आश्वासन दिया जाता है कि परीक्षा मे नकल कराई जायेगी और पास कराया जायेगा और इस शर्त को पूरा करने के लिए "परीक्षा केंद्र अधीक्षक " नामक प्राणी की पेड (paid) सेवाएं ली जाती हैं। अब इस संदर्भ मे छात्रों को ही गलत ठहराना न्यायसंगत नहीं दिख रहा।

    वहीं दूसरी तरफ नकल बंद होने के दुष्परिणाम भी अत्यंत भयानक हो सकते हैं जैसे कि नकल बंद होने के कारण आए खराब परीक्षा परिणामों के मद्देनजर गुस्साए अभिभावकों द्वारा सरकारी स्कूलों पर, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, ताले जड़े जा सकते हैं।
    कहीं भी नकल न होने की स्थिति में परीक्षाओं में फेल होने वाले छात्रों की बढ़ती संख्या के चलते युवा वर्ग में बेचैनी, निराशा एवं कुंठा जैसे नकारात्मक भाव जागृत हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप आत्महत्या जैसी घटनाओं में बढ़ोतरी हो सकती है और अंततोगत्वा संपूर्ण सामाजिक वातावरण तनावग्रस्त हो सकता है।

    मैं आपकी लेखनी और आपके विचारों का प्रशंसक हूँ
    ये मेरे निजी विचार हैं
    आपने बहुत ही अच्छा ब्लॉग लिखा है इसमे कोई दो राय नहीं हैं

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    1. प्रिय त्रिभुवन भैया हमारे ब्लॉग पर आकर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने एवं मेरे विचारों पर अपना मत प्रदान करने हेतु आपका हार्दिक आभार। क्षमा करिएगा किंतु आपके इस मत पर मेरी सहमति संभव नही हो पा रही है। यह उचित है कि परीक्षा में नकल को बढ़ावा देने हेतु कुछ अधिकारियों एवं अध्यापकों का दोष है किंतु इनकी शह में नकल करने वाले छात्रों को दोषमुक्त कर देना स्वयं में एक अपराध होगा। छात्रों को अपने नैतिक मूल्यों को, सिद्धांतों को इतना मजबूत रखना चाहिए, अपने स्वाभिमान को इतना ऊँचा रखना चाहिए कि चारों दिशाएँ भी यदि नकल करने का लोभ प्रदान करें तो वो ठीक उसी प्रकार नकल के विचार मात्र से मुँह फेर ले जिस प्रकार अर्जुन ने ऊर्वशी के विवाह प्रस्ताव को ठुकराया था। ऊर्वशी द्वारा नपुंसक होने के शाप को जिस प्रकार अर्जुन ने सहज स्वीकारा उसी प्रकार छात्रों को चाहिए कि वो अपने मन को इतना दृढ़ बनाए कि कोई भी परिस्थिति उन्हें नकल करने जैसे निंदित कर्म को अपनाने की अनुमति न दे, विफलता फिर भी स्वीकार हो किंतु छल के नम्बर से तो भीख उत्तम।

      क्षमा करिएगा किंतु आपने जिन तर्कों को प्रस्तुत किया है उस आधार पर तो संसार के सभी अपराधी दोषमुक्त सिद्ध हो जायेंगे। चोर को चोरी करने की,हत्यारे को हत्या करने की छूट भी मिलनी चाहिए अन्यथा अवसाद उन्हें भी घेर सकता है।

      रामायण के जिस प्रसंग की आप चर्चा कर रहे हैं उसमें माता कैकेयी के चरित्र द्वारा यह सीख दी गई है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार के प्रलोभन में नही आना चाहिए किसी के भड़काने पर भड़कना नही चाहिए और कोई यदि अनुचित मार्ग दिखाए तो हमे अपने विवेक अनुसार उचित पथ पर ही बढ़ना चाहिए।

      रघुकूल रीति सदा चली आई,प्राण जाए पर वचन न जाई का एक अर्थ यह भी है कि वचन पालन हो या और कोई सतकर्म हमे उसका पालन पूर्ण निष्ठा के साथ करना चाहिए। विषम परिस्थितियों में भले प्राण चले जाए अच्छे कर्म का त्याग नही करना चाहिए ठीक इसी प्रकार भले प्राण जाए किंतु अनुचित कर्मों को स्वीकार भी नही करना चाहिए।

      कोई भी बहाना या तर्क देकर हम नैतिक मूल्यों का त्याग कर दोषमुक्त नही हो सकते। परिस्थितियाँ राजा हरिश्चन्द्र जी की भी अनुकूल न थी किंतु उन्होंने सत्य,धर्म का त्याग नही किया तो हम मात्र अहंकार के पोषण हेतु या झूठी शान बचाने हेतु छल का सहारा ले। फल तो कर्म का मेहनत का मीठा लगता है फिर परीक्षा संसार में हो या परीक्षाकेंद्र में।

      ..... इस विषय पर बाकी चर्चा अब क्लास में होगी। आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रिया हेतु पुनः आभार। नमस्कार 🙏

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  3. बहुत विचारणीय आलेख, आँचल दी। इस ओर ध्यान देना बहुत ही जरूरी है।

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  4. विचारोत्तेजक लेख, सटीक तर्क ।
    बहुत मंथन के बाद लिखा गया आकर्षक विषय।

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  5. विचारणीय आलेख और रोचक प्रस्तुति। आपने सही कहा नकल के विषय में सोचने की जरूरत है क्योंकि नकल से व्यक्ति परीक्षा तो उत्तीर्ण कर लेगा लेकिन ज्ञान के अभाव में अपने भविष्य के साथ साथ अपने पेशे का नुकसान ही करेगा।

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  6. अभिनव सिंह10 August 2023 at 19:12

    विद्यार्थियों के लिए तो परीक्षाएं उत्सव जैसी होती हैं। परीक्षाओं में नकल की परम्परा ठीक वैसे ही है जैसे चोरी के पैसे से उत्सव मनाना। आपने अपनी बात बड़ी सरलता से कह दी कि नकल के लिए जिम्मेदार केवल छात्र हैं। ध्यान देना होगा कि परीक्षा केवल छात्र/छात्रा की तपस्या नहीं वरन् शिक्षक , और शिक्षार्थी के साथ -साथ सामाजिक परिवेश की भी तपस्या है।
    परीक्षक की नजर से कोई कैसे बच सकता है? पहले के शिक्षक तो सौ , दो सौ बच्चों की परीक्षा में भी बच्चों को गर्दन तक हिलाने नहीं देते थे। आज चार-चार परीक्षक भी साथ में सी सी टी वी कैमरा फिर भी नकल हो रही ..।
    नकल आज छिट-पुट स्तर पर न होकर व्यापक स्तर पर परम्परा के रुप में हो रही है।यह बात तो आपकी सही है लेकिन परम्परा एक व्यापक शब्द है उसमें एक ,दो वर्ष नहीं अनेकों वर्ष समाहित हैं। नकल करने की मानसिकता का निर्माणक कोई और नही हमारे शिक्षक हैं, गुरुजन हैं और कोई नही।हाँ यह कठोर सच शायद आपको आहत कर जाए पर यह सच है। बच्चों को उचित शिक्षा देंगे नही, तब अन्त में एक ही रास्ता बचता है। परीक्षा कक्ष में नकल होने दो, काॅपियों का मूल्यांकन करते समय नम्बर लुटा दो।
    महात्मा गांधी जी ने अपनी आत्मकथा ..सत्य के प्रयोग में लिखते हैं कि मेरे एक शिक्षक मुझे नकल करके मात्र एक उत्तर ठीक करने को कहते हैं किन्तु मैंने नकल नही किया और पूरी कक्षा में पीछे रहा।सोचों उस शिक्षार्थी के बारे में जिसने अपने शिक्षक के कहने पर भी नकल नही किया ।वास्तव में वह गुरु के द्वारा प्रदत्त संस्कार था। जो गांधी जी में सृजित हुआ।पर यह सृजन केवल गांधी की अपनी उपलब्धि नही इसके पीछे उनके गुरुजन, माता-पिता, समाज आदि का परिश्रम है।
    बहुत सी बातें हैं। आपने तो बस एक पक्ष को देखा है, दूसरा पक्ष तो सिरे से गायब कर दिया है।
    " वर्तमान के बिगड़ने में अतीत का हाथ होता है। "
    अगर बीज बुरा नहीं है तो फल बुरा कैसे हो सकता है।
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    अच्छा लिख रही है आप 👌🏻🙏🙏

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