मैं भारत थी,
अखंड भारत।
मेरी विविधता थी
मेरे गर्व का कारण,
मेरी संतान करती थी
सहृदयता को धारण,
कर्म जिसका पथ था
और था सत्य का बल
प्रेम-सौहार्द संग
था जो निश्छल।
अनेक होकर भी एक,
एकता का सूत्र प्यारा था।
मैं आज भी
भारत हूँ,
खंडित-अखंड भारत।
निरपराध मैं
अपनी ही संतान द्वारा
दंडित अखंड भारत।
ज़ात-धर्म पर मुझे बाँटा गया,
राग-द्वेष से पाटा गया,
मेरी गोद में खेलती अबोध संतान
को मौत के घाट उतारा गया!
मैं स्तब्ध खड़ी देखती रही
मेरी संतान की निर्ममता,
मेरे टुकड़े कर चिल्लाया गया-
"संकल्प हमारा देश की अखंडता।"
#आँचल
सूंदर तथ्यात्मक रचना
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 19 अगस्त 2022 को 'अपनी शीतल छाँव में, बंशी रहा तलाश' (चर्चा अंक 4526) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
हे भारत ! तुम अफ़वाहों पर ध्यान मत दो. तुम अखंड थे, अखंड हो, अखंड रहोगे. क्या साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषा-विवाद आदि तुम्हें हमेशा अखंड रखने के लिए काफ़ी नहीं हैं?
ReplyDeleteसर अखंड भारत आखंड बन गया है।
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