जब भी जन-जागरण हेतु
लेखनी उठाती हूँ
और पुनः प्रयास को सज होती हूँ
एक परोक्ष-सी लड़की की अट्टहास
मेरे कानों में गूँजती है
और तभी अँधेरा छा जाता है,
उस घोर अंधकार से ' निराशा ' आती है,
मुझे देख मुस्कुराती है,
मेरा आलिंगन करती है
और सांत्वना देने का ढोंग करते हुए
मुझसे कहती है -
" व्यर्थ हैं तुम्हारे सारे प्रयास।
छोड़ दो यह पागलपन
और सबकी तरह तुम भी
स्वयं पर विचार करो,
स्वार्थ का शृंगार करो।"
पर मैं हठी, तंज़ निगाहों से
उसकी ओर देखती हूँ
फिर अधरों पर
मुस्कान को सजाते हुए
उससे कहती हूँ -
"मैं करती रहूँगी प्रयास।
आज भी और मेरे अंत के पश्चात भी।"
#आँचल
आज भी और मेरे अंत के पश्चात भी? निराशा से जूझना सरल नहीं। उससे जूझने का भाव भी अपने आप में सराहनीय है।
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-06-2021को चर्चा – 4,098 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ जून २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
क्षमा सहित,
Deleteकृपया आमंत्रण १८ जून पढ़ा जाय।
सादर।
"आज भी और मेरे अंत के पश्चात भी।" - ..
ReplyDeleteसच में, विचार/सोच की एक चिंगारी कभी मरती कब है भला .. वो तो निरन्तर सुलगती भी रहनी चाहिए .. ना जाने किस पल बुराईयों की शुष्कता बढ़े और एक चिंगारी ही सुलगते-सुलगते धू-धू कर के जल उठे .. किसी जंगल की तरह .. शायद ...
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्रयास ही सफल होते हैं। भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रिय आँचल | प्रयास करने में क्रांति और बदलाव की सफलता निहित है |
ReplyDeleteआत्म बल से भरी, सुंदर बोध लिए सशक्त प्रस्तुति, प्रिय आँचल।
ReplyDeleteसस्नेह।