बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Thursday, 5 June 2025

अँधेरे के साम्राज्य में

 



आज फिर रात हो गई 

'दिन' को ढोते-ढोते!

आहिस्ता कंधों से उतार 

उसे पटक दिया मैंने भू पर 

फिर माथे से ढुलकते 

तारों को समेटा आँचल में 

गहरी श्वास भरी 

और देखा नज़र उठाकर 

आकाश की ओर 

कि माँग लूँ उधार कुछ तारे 

और बाँध लूँ 

अपने आँचल में कसकर 

इस आस में कि कल 

जब बुझ जाएँगे 

आशा के सब दीपक,

क्रान्ति की सब मशालें 

और शहीद हो जाएँगे 

सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते 

तब शायद इन्हीं तारों में से 

फूट पड़ें नए भोर की किरणें 

पर अफ़सोस कि आज 

आकाश का आँचल भी सूना हो गया 

'अँधेरे के साम्राज्य में।'

#आँचल 

6 comments:

  1. बहुत सुंदर बिंबों से सजी,अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति।
    आपके स्वर ने रचना में प्राण भर दिये हैं बहुत प्रभावशाली पाठन।
    सस्नेह।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर आशा को जगाती

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  3. सुन्दर रचना।

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  4. बहुत सुंदर रचना

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  5. पर अफ़सोस कि आज

    आकाश का आँचल भी सूना हो गया

    'अँधेरे के साम्राज्य में।'
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  6. बहुत सुन्दर

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