अनगिनत प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ती मैं
यकायक मौन हो गई हूँ
और देख रही हूँ
उस निरीह,निस्तेज पत्ते को
अपने संसार से विलग होते,
हर बंधन से छूटते और गिरते
जैसे गिरता है मनुष्य
अपने भीतर खड़े स्वप्न, आकांक्षाओं और आशाओं के वृक्ष से,
छूटता है प्रियजनों के बंधनों से
और अलग हो जाता है अपने ही संसार से।
फिर शेष क्या बचता है दोनों में?
केवल मृत्यु!
जो इन्हें अपने गर्भ में लिए
बहा ले जाती है
आह!और चाह के
इस संसार से कहीं दूर
और हो जाता है सब कुछ मिट्टी!
पर यह अंत नहीं है
जीवन के उपन्यास का,
कुछ तो रह जाता है शेष भीतर
जिसकी खाद बनाता है समय
और करता है फिर एक नई सृष्टि,
नए पल्लव उगते हैं वृक्षों पर,
प्रकृति करती है अभिवादन
जैसे बार-बार मर कर भी
मनुष्य करता है स्वागत
मन के आँगन में खिले
नव पुष्पों का,
मृत्यु के बाद जीवन का।
#आँचल
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