इस भागते-दौड़ते मशीन युग में जब मनुष्य में मनुष्यता का लोप होता जा रहा है,संवेदना क्षीण होती जा रही है और हृदय भावशून्य होता जा रहा है तब कविता ही भाव-गंगा के रूप में प्रवाहित होकर मनुष्यता को सींचती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी अपने निबंध " कविता क्या है ? " में लिखते हैं -
" मनुष्य अपने ही व्यापारों का ऐसा सघन और जटिल मंडल बाँधता चला आ रहा है जिसके भीतर बँधा-बँधा वह शेष सृष्टि के साथ अपने हृदय का संबंध भूला-सा रहता है। इस परिस्थिति में मनुष्य को अपनी मनुष्यता खाने का डर बराबर रहता है। इसी की अंतः - प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी।"
शुक्ल जी के इन्हीं वचनों पर खरी उतरती है लखनऊ के युवा कवि, कहानीकार,ब्लॉगर आदरणीय सर श्री ध्रुव सिंह एकलव्य जी की पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें "। यह चीख़ती आवाज़ें मनुष्य की मनुष्यता को झकझोर कर पूछती हैं कि क्या यही हो तुम? एक संवेदनहीन मनुष्य! और यही है तुम्हारा संसार जहाँ अनसुनी कर दी जाती है हर रोज़ कोई चीखती पुकार?
आदरणीय ध्रुव सर को प्रथम बार पढ़ने का सुअवसर उनके ब्लॉग " लोकतंत्र संवाद " से प्राप्त हुआ किंतु उनसे परिचय हमारे फेसबुक पर आने के पश्चात संभव हुआ। समय के साथ सर के ब्लॉग पर प्रकाशित लगभग सभी रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य हमे मिला। सर की लेखनी में जो संवेदना है, क्रांति की जो आग है एवं सत्य के पक्ष में निर्भीक खड़े रहने का जो साहस है वह उनके पाठकों को उनका प्रशंसक बनने पर विवश कर देती है। यही गुण हमे उनके काव्य-संग्रह " चीख़ती आवाज़ें " में भी देखने को मिलते हैं।
प्राची डिजिटल पब्लिकेशन द्वारा वर्ष 2018 में मेरठ से प्रकाशित यह काव्य - संग्रह " चीख़ती आवाज़ें " सर की प्रथम प्रकाशित पुस्तक है। आदरणीय सर ने इस पुस्तक को सुंदर पंक्तियों के संग अपनी माताश्री श्रीमती शशिकला सिंह जी को समर्पित किया है। १०१ पृष्ठों में ४२ मार्मिक कविताओं को समाहित करने वाली यह पुस्तक मात्र ११० रुपए के मूल्य पर आकर्षक कवर के साथ उपलब्ध है। इस पुस्तक के कवर पेज पर प्रस्तुत चित्र जिसका सृजन स्वयं ध्रुव सर ने किया पुस्तक के अंतर में निहित समस्त भावों को स्पष्ट करती है।
दिल्ली के प्रगतिवादी कवि,प्रसिद्ध ब्लॉगर,लेखक,चिंतक,समीक्षक आदरणीय सर श्री रविन्द्र सिंह यादव जी पुस्तक को सुंदर भूमिका प्रदान करते हुए लिखते हैं -
" प्रस्तुत पुस्तक में कवि ने अपने कृतित्व में प्रतिरोध को केंद्रीय भाव के रूप में स्थापित किया है।"
" समाज के उपेक्षित कोनों में जो अनवरत दबता चला जा रहा है वहाँ कवि की दृष्टि ठहरती है और दुःख - दरिद्रता, बेचारगी,दमन और सामाजिक असमानता पर क़लम अपना कमाल दिखाती है। परिवर्तन की इच्छाशक्ति जगाती और शहर व ग्रामीण जीवन की विसंगतियों पर पैनी नज़र गढ़ाती कवि की सृजनशीलता जीवन में नए अर्थ खोजती है। "
भूमिका के अंत में सर यह भी लिखते हैं कि -
" कुछेक रचनाओं में जहाँ प्रवाह की कमी खटकती है तो वे ही वाचक को दर्द की गहराई में उतरने को प्रेरित भी करती है। "
प्रस्तुत पुस्तक में हमे उनके प्रगतिवादी विचारों की जो झलक मिलती है उसका मूल स्रोत आदरणीय ध्रुव सर स्वयं अपने पिता श्री लालमणि सिंह जी को मानते हुए पुस्तक के माध्यम से उन्हें विशेष आभार व्यक्त करते हैं। साथ ही सर ' प्रयोग ' को समाज के लिए आवश्यक बताते हुए लिखते हैं -
" सभी दिशाओं में प्रयोग सदैव ही प्राणीमात्र के सर्वांगीण विकास में एक सच्चे मार्गदर्शक का कार्य करता रहा है। "
यह पुस्तक किसी कवि की कुछ कविताओं का संग्रह मात्र न होकर एक कड़ा प्रहार है सामाजिक कुरीतियों,विषमताओं एवं हमारी संकुचित मानसिकता पर। यह प्रयास है उस यथार्थ को प्रतिपल हमारे समक्ष प्रस्तुत रखने का जिसे हम अक्सर झुठलाते या नजरअंदाज कर देते हैं।
" चीख़ती आवाज़ें " के पात्र बेशक काल्पनिक नही हैं। हम अक्सर इन्हें अपने आसपास उठते- बैठते - जीते देखते हैं,अपनी परिस्थितियों से जूझते देखते हैं पर आश्चर्य है कि हम इनकी व्यथा को समझने से चूक जाते हैं। जिन्हें हम सदा हीन दृष्टि से देखते आए हैं उन पात्रों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। हमारी दृष्टि में जो दोष है यह पुस्तक उसी का उपचार करने हेतु एक सार्थक प्रयास है।
अब इन पात्रों से आपका परिचय करवाते हुए प्रस्तुत पुस्तक की कुछ कविताओं की छोटी-सी झलक पेश करना आवश्यक जान उसी दिशा में आगे बढ़ती हूँ।
पुस्तक की प्रथम कविता " मरण तक " में कवि ने बीड़ी बनाने के लिए पत्ते बीनने वाली एक स्त्री का मार्मिक चित्रण किया है। उस स्त्री की दुर्दशा को देख उसे कुरूप जान जब लोग उससे मुहँ फेर लेते हैं तब वह स्वयं यह कहकर कि वह बीड़ी के धुएँ में सुंदरी-सी लगेगी हमे हमारे दृष्टिकोण पर पुनः विचार करने को विवश करती है।
" बाबू जी
मत देखो!
विस्मय से मुझे और
मेरी दुर्दशा जो हुई
उन पत्तों को लाने में।
आग में धुआँ बनाकर
जो लेंगे कभी
तब दिखूँगा! सुंदरी - सी
मैं। "
कविता " ख़त्म होंगी मंज़िलें " में कवि ने उन मजदूरों को पात्र के रूप में लिया जो बड़े-बड़े नगरों में अनेक मंज़िलों की ऊँची इमारतें बनाते हैं किंतु विडंबना देखिए कि स्वयं उनकी रात्रि फ़ुटपाथ पर यह सोचते हुए बीतती है कि किसी प्रकार उदर की यह आग ( भूख ) सदा के लिए बुझ जाए और फिर कोई मंज़िल निर्माण का कार्य न करना पड़े।
" साँझ ढलेगी!
रात्रि का जागता
वो पहर
मंज़िलों के निर्माण का
विश्राम वाला दिन
हम फ़ुटपाथ पर
चूल्हा जलायेंगे पुनः
उदर की आग बुझाने
के लिए।
केवल सोचते हुए यही
बुझ जाए
यह आग
सदा के लिए
ताकि आगे कोई मंज़िल
निर्माण की
दरकार न बचे
कभी! "
कविता " ग़ुलाम हैं " में कवि उन किसानों की व्यथा-कथा को प्रस्तुत करते हैं जिनकी परिस्थिति में स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर आज तक कोई परिवर्तन नही हुआ। उनकी आँखों में पल रहे स्वप्न आज भी प्रतीक्षा करते हुए सूख जाते हैं।
" देते थे लगान
लगाकर
लगाम मुख पर कभी।
कर रहे हैं
अदा!
खोखली स्वतंत्रता के नाम पर
मजबूरियाँ अपनी
वर्तमान में। "
एक बेगार के जीवन की घोर विडंबना को दर्शाती है कविता " विरासत "। जहाँ एक बेगार अपनी संतान को विरासत में यही बेगारी का जीवन देने को विवश है।
" बिना थके,रुके,सोए...
जाड़ा हो या बरसात
नमक - हराम नहीं
नमक - हलाल हूँ!
भाग्य तेरा भी यही है
मेरे बच्चे
आख़िर विरासत है
अंतिम!
' बुथई ' का
वही नीम का अकेला
पेड़। "
हमारे समाज में यह भी एक विडंबना ही है कि कहीं किसी के पास 4-5 आलीशान मकान हैं तो कहीं किसी के लिए खुले आकाश के नीचे यह फ़ुटपाथ ही सुलभ स्थान है। कविता " खटमल का दर्द " इसी विडंबना पर एक करारा व्यंग है।
" खटमल को शायद
आदमी पसंद हैं
और वो भी
फ़ुटपाथ के! "
अपनी रोटी के इंतज़ाम के लिए रेलवे स्टेशनों पर तंबाकू एवं गंगाजल के नाम पर पेयजल बेचने हेतु दौड़ - भाग करते इन बच्चों को कविता " अठन्नी - चवन्नी " में पढ़ना भी कम कष्टपूर्ण नही। यह कविता क्षणभर में मिथ्या गर्व को चूर कर पाठकों की आंखें लज्जा से झुकाकर उन्हें यह सोचने पर विवश करती है कि आख़िर इन मासूमों का दोषी कौन?
बदमाश, बेग़ैरत हैं
कितने! छोटे ये
सौदागर
बेच रहे केवल
पेट की खातिर
स्वाद बनाने वाले
बाबूओं के मुँह का
मौत - सा! सामान "
प्रस्तुत पुस्तक में कवि ने एक पात्र " बुधिया " का वर्णन अनेक कविताओं में किया है। इसका वर्णन हमे पुस्तक के कवर पेज के पिछले भाग पर भी मिलता है। यह " बुधिया " हमारे समाज के उस दीन-हीन -शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो अपनी विपन्नता,विवशता एवं समाज की संकीर्ण मानसिकता से प्रतिदिन संघर्ष करते हुए अपने एवं अपने परिवार का पालन करने का यत्न करता है।
" रोटी बुधिया की " में जहाँ " बुधिया की सारी सूखी रोटियाँ " सर्व - सुख संपन्न समाज को उसके छोटेपन का एहसास कराती है तो वहीं कविता " बुधिया के धान " किसान वर्ग की दारुण दशा और उनपर हो रहे शोषण की ओर संकेत कर पाठकों के मन को व्यथित भी करती है।
" डरे भी हैं!
प्रसन्न भी
कारण है
वाजिब!
परदेसियों के आगमन का।
मेहनत बिन
ले जायेंगे हमको
हाथों से हमारे
पालनहार के,
जिसे हम
' बुधिया '
बाबा कहते हैं। "
जिस देश-समाज में स्त्री देवी,शक्ति,प्रकृति आदि विशेषणों से अलंकृत की जाती है वहीं उसे माँ,बेटी,पत्नी,बहु के रूप में खोखली मर्यादाओं की बेड़ियों में बाँधकर उसका शोषण किया जाता है। हमारे लाख नकारने एवं तर्क देने पर भी हम इस सत्य को झुठला नही सकते कि इतनी कुप्रथाओं के दमन के पश्चात,इतने आंदोलन एवं अभियान के पश्चात, समाज के विचारों में इतने परिवर्तन के पश्चात भी स्त्रियों की दशा और उनके प्रति समाज का दृष्टिकोण आज भी चिंता का विषय है। प्रस्तुत पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें " में भी कवि जब इन स्त्रियों के अधरों पर सुसज्जित मिथ्या मुस्कान के पीछे की चीख़ - पुकार सुनता है तो उसकी लेखनी भी व्याकुल हो उठती है। इसी के परिणाम स्वरूप कवि की लेखनी " स्त्री विमर्श " पर भी खूब चली है।
इस आज़ाद देश में जब हम स्त्री की पूर्ण आज़ादी के विषय में गर्व से चर्चा करते हैं तब हमारे भ्रम को भंग करने के उद्देश्य से अवतरित होती है कविता " निर्धारण "। यह कविता हमे समाज में स्त्री की तय सीमाओं के विषय में बताते हुए हमे वास्तविकता से अवगत कराती है।आज भी समाज की दृष्टि में एक स्त्री की यात्रा पिता के आंगन से पति के घर होती हुई मृत्यु शय्या पर समाप्त हो जाती है।
" बाँध दिया बे - ज़ुबान
बकरी की तरह,
मैं नहीं बदली
न ही मेरे दिन
निःसंदेह!
परिवर्तन तो हुआ है
रेखाओं की सीमाओं में
जो जाती हैं होकर
बाबुल के घर से
पिया के आश्रय तक। "
माँ और उनकी ममता के आगे ईश्वर का अथाह सौंदर्य भी फ़िका पड़ जाता है किंतु यही माता जब अपनी संतान के प्रति पूर्ण समर्पित भाव से अपने कर्तव्यों के निर्वाह में जुटती है तो इसे स्वयं की भी सुध नही रहती। ममता की यह मूरत अपने बच्चों की एक मुस्कान के लिए नित नए जुगाड़ ढूँढ़ती स्वयं का ही बलिदान देती रहती है।कविता " जुगाड़ " एसी ही माँ के बलिदान की गाथा है।
" प्रसन्न थे हम
दिन-प्रतिदिन
खो रही थी वो
हमे प्रसन्न रखने के
जुगाड़ में। "
महाप्राण निराला जी की कविता " वो तोड़ती पत्थर " को विस्तार प्रदान करते हुए कवि ने कविता " फिर वो तोड़ती पत्थर " के माध्यम से समाज को गंभीर प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है। निराला जी की कविता की वह मेहनतकश स्त्री क्यों आज परिस्थितियों से इतनी विवश हो गई कि पत्थरों के स्थान पर स्वयं की अस्मिता पर चोट करने लगी?
" अब तोड़ने लगी हूँ
जिस्मों को
उनकी फ़रमाइशों से
भरते नहीं थे पेट
उन पत्थरों की तुड़ाई से। "
स्त्री विमर्श और नारी सशक्तिकरण पर अक्सर ही बहसें हुआ करती हैं और होनी भी चाहिए किंतु किसका सशक्तिकरण?किसे सशक्त होने की आवश्यकता है और कौन पहले से ही है? इन्ही विचारणीय प्रश्नों को उठाने का प्रयास कवि अपनी कविता " सशक्तिकरण " में करते हैं।
" प्रश्न है
किसका?
सशक्त थीं
पूर्व में जो
अथवा
तरस रहीं
दो जून की रोटी को। "
एकलव्य की लेखनी वह धनुष है जिसकी प्रत्यंचा पर जब पंक्तिबद्ध शब्दबाण चढ़ते हैं तो वह निश्चित अपने गंतव्य तक पहुँचते हैं। पुस्तक " चीख़ती आवाज़ें " भी ऐसे ही ४२ बाणों से सजा एक तरकश है। उपेक्षित वर्ग के संघर्ष की गाथा,उनकी व्यथा,उनकी पीड़ा को धारण किए ये बाण जब पाठकों के हृदय तक पहुँचते हैं तो इस जगमगाती दुनिया के पीछे के यथार्थ को उजागर करते हुए पाठकों को द्रवीभूत करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक का भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों ही सराहनीय है। तत्सम एवं उर्दू शब्दों से अलंकृत इसकी सहज - सुंदर भाषा पाठकों को इसमें निहित गूढ़ अर्थ तक पहुँचने में सहायक है।
समाज में व्याप्त विषमताओं का खंडन करने एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना करने के उद्देश्य से सृजित यह पुस्तक निश्चित ही सुधि पाठकगणों एवं साहित्य समीक्षकों की सराहना की पात्र है।
इस अद्भुत कृति हेतु हम आदरणीय ध्रुव सर को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए उन्हें एवं उनकी कर्मनिष्ठ,साहित्यसेवी लेखनी को सादर प्रणाम करते हैं। माँ शारदे से यही प्रर्थना है कि आदरणीय सर की लेखनी की धार निरंतर बढ़ती रहे और उनकी यह साहित्य सेवा अनवरत चलती रहे।
प्रणाम 🙏
बहुत सुन्दर समीक्षा
ReplyDeleteपुस्तक समीक्षा निश्चय ही सराहनीय है एवं कवि के सृजन की गुणवत्ता को रेखांकित करती है। समीक्षा की भाषा- शैली से ऐसा प्रतीत होता है कि समीक्षिका कवि के प्रति अत्यधिक आदर भाव रखती हैं।
ReplyDeleteविस्तृत समीक्षा। बहुत बढ़ियाँ।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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