तप रहा वह धूप से या नीतियों की मार से?
लड़ रहा है भाग्य से या पूँजीपतियों के प्रहार से?
वह चला रहा है छेनी क्या रोटी के इंतज़ाम को?
या तोड़ता है अपनी आँखों में पल रहे सपने?
जोड़-जोड़ के ईंटों को जो ऊँची इमारतें बनाता है,
खुले आसमान के नीचे क्यों अपनी रातें बिताता है?
झेलकर मार मौसम की जो अन्न उगाता है,
वह वीर माटी का क्यों फाँसी पर झूल जाता है?
भाषणों में जिसके नाम पर कोई वोट पाता है,
क्यों जीत के बाद उसको भूल जाता है?
ऋण है श्रमिक का देश पर जो देश बढ़ता है,
तो क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?
#आँचल
सही और सटीक चित्रण।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
Deleteमजदूर की नियति उसके हाथों में थमाये गये सपनों की डोरियों से लटकी होती है...अपने जीवन की गाड़ी खींचने के लिए चाकरी करने को विवश मजदूर किसी भी समाज की इमारत में नींव की भूमिका में होते हैं जिनका न कोई चेहरा होता है कराह ही सुनाई पड़ती है।
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित और मर्मस्पर्शी सृजन प्रिय आँचल।
उचित कहा आपने आदरणीया दीदी जी। उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर प्रणाम 🙏
Deleteमजदूर दिवस को सार्थक करती रचना।
ReplyDeleteउत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
Deleteमजदूर वर्ग की यही नियति है इस देश में, मुझे तो मजदूर संज्ञा में ही मजबूर सुनाई और दिखाई पड़ता है। ना जाने ये स्थिति कब बदलेगी ?
ReplyDeleteउचित कहा आपने आदरणीया दीदी जी। उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार सादर प्रणाम 🙏
Deleteचर्चा मंच पर हमारी रचना को स्थान देकर मेरा उत्साह बढ़ाने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
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