बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Friday, 1 May 2020

क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?


तप रहा वह धूप से या नीतियों की मार से?
लड़ रहा है भाग्य से या पूँजीपतियों के प्रहार से?
वह चला रहा है छेनी क्या रोटी के इंतज़ाम को?
या तोड़ता है अपनी आँखों में पल रहे सपने?
जोड़-जोड़ के ईंटों को जो ऊँची इमारतें बनाता है,
खुले आसमान के नीचे क्यों अपनी रातें बिताता है?
झेलकर मार मौसम की जो अन्न उगाता है,
वह वीर माटी का क्यों फाँसी पर झूल जाता है?
भाषणों में जिसके नाम पर कोई वोट पाता है,
क्यों जीत के बाद उसको भूल जाता है?
ऋण है श्रमिक का देश पर जो देश बढ़ता है,
तो क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?

#आँचल 

9 comments:

  1. सही और सटीक चित्रण।

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    1. उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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  2. मजदूर की नियति उसके हाथों में थमाये गये सपनों की डोरियों से लटकी होती है...अपने जीवन की गाड़ी खींचने के लिए चाकरी करने को विवश मजदूर किसी भी समाज की इमारत में नींव की भूमिका में होते हैं जिनका न कोई चेहरा होता है कराह ही सुनाई पड़ती है।
    बहुत सारगर्भित और मर्मस्पर्शी सृजन प्रिय आँचल।

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    1. उचित कहा आपने आदरणीया दीदी जी। उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर प्रणाम 🙏

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  3. मजदूर दिवस को सार्थक करती रचना।

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    1. उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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  4. मजदूर वर्ग की यही नियति है इस देश में, मुझे तो मजदूर संज्ञा में ही मजबूर सुनाई और दिखाई पड़ता है। ना जाने ये स्थिति कब बदलेगी ?

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    1. उचित कहा आपने आदरणीया दीदी जी। उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार सादर प्रणाम 🙏

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  5. चर्चा मंच पर हमारी रचना को स्थान देकर मेरा उत्साह बढ़ाने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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