बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Friday, 7 February 2025

सोने का वक़्त हो चला है

सोने का वक़्त हो चला है 
पर अभी नींद का आँखों में आना शेष है,
'आज' आज ही बीत गया कल की तैयारी के साथ,
न आज में कुछ विशेष था और 
न कल ही में होगा कुछ विशेष 
फिर भी जगना होगा 
फिर से उसी सूरज के साथ,
कोई मंज़िल नही है मेरी 
जहाँ पहुँचने की जल्दी हो मुझे 
फिर भी भागना होगा 
तेज़ और तेज़ 
एक अंतहीन सड़क पर,
क्यों और किसलिए का जवाब 
मुझे पता नहीं 
और शायद इन जवाबों को मुझे 
अब ढूँढना भी नहीं 
हाँ,पर अब सोना है मुझे 
और गुज़ारनी है यह रात 
क्योंकि कल फिर 
एक अंतहीन सड़क पर मेरा भागना शेष है।

#आँचल 

जीवन

शाख़ से झड़ते पत्तों ने जब
नई कोपलों को फूटे देखा 
तो यही सोचा कि अब 
धीरे-धीरे इन्हें भी जीना है 
जीवन का हर रंग,
हर पहलू को समझना है,
जानना है कि 
संघर्षों की धूप में ही 
अपनों की छाँव मिलती है,
घिरते हैं बादल जब 
और घोर अंधकार छाता है 
तब जाकर किसी चातक की 
प्यास बुझती है,
खिलती हैं कलियाँ कहीं 
तो कहीं पतझड़ आता है,
रात,प्रभात और फिर रात 
रुका है कौन-सा समय?
सब आकर बीत जाता है
बालपन की चंचलता 
यौवन का शृंगार,
सफलता का माद,
प्रेम,विरह और अवसाद 
सब रह जाता है भीतर कहीं 
बनकर एक 'याद'
जो रहता है अंतिम क्षण तक साथ 
पर यह भी छूट जाता है 
हमारे झड़ने के साथ 
जैसे कल ये नई कोपलें
भी झड़ जाएँगी
जीवन के हर पहलू को 
समझने के बाद।

#आँचल