बस यही प्रयास कि लिखती रहूँ मनोरंजन नहीं आत्म रंजन के लिए

Saturday, 14 December 2024

मुर्दा रिश्तों का यह ज़माना


ख़ुदी में मशरूफ़ मुर्दा रिश्तों का यह ज़माना,
यहाँ कहाँ अब मोहब्बत के गुलाब खिलते हैं,
घरों के आँगन भी बँटने लगे हों जहाँ
अब कहाँ वहाँ किसी की छत के मुंडेर जुड़ते हैं
हाँ, मिले थे हम-तुम भी कभी ऐसे जैसे 
कहीं कोई दरिया और समुंदर मिलते हैं 
पर आज मिले हैं ऐसे-जैसे ब-मुश्किल 
किसी नदी के दो किनारे मिलते हैं।

#आँचल



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