अब खो गए वो जगमग तारे,
अंधेरी रातें बीती जिनके सहारे,
है भाग्य का जो चढ़ा दिवाकर,
डोलते- फिरते हैं भंवरे सारे।
क्या हुए वो पत्थर सब एक किनारे?
मैं बढ़ा था जिनकी ठोकर के सहारे,
अब राह में मेरे फूल बिछाकर
कर रहें हैं स्वागत किस स्वार्थ के मारे?
आगे फैले थे जिनके कल हाथ हमारे,
आज खड़े हैं आकर वो द्वार हमारे।
जो देखा पलभर को पीछे मुड़कर,
पाया फिर खुद को हाथ पसारे।
#आँचल
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-10-2020 ) को "उस देवी की पूजा करें हम"(चर्चा अंक-3860) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteवाह सार्थक!सीधा प्रहार।
ReplyDeleteसुंदर रचना प्रिय आँचल ।
बहुत सरस रचना |
ReplyDeleteबहुत अच्छी बाल-कविता जो वयस्कों के लिए भी शिक्षाप्रद है ।
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