Sunday, 27 December 2020

है फिर भी ये कैसी लगन तुमसे कान्हा?

 


वो कभी प्रेम से चूमे गए,

कभी आँसुओं में भीगे ख़त ,

वो सूखे गुलाब जिनमें 

ताज़ा है इश्क की महक,

वो तुम्हारे साथ खिंचवाई तस्वीरें 

वो नोक-झोक,वो दलीलें,

वो तुमसे रूठ के जाना 

और तेरा आकर मनाना,

वो हाथों में हाथ थाम 

मीलों टहलना,

वो तेरे फोन के इंतज़ार में 

दिनभर तड़पना,

और छुपकर तुमसे 

सारी रात बतियाना,

वो मेरी नादानियों पर 

तुम्हारा भड़कना,

परवाह में मेरी रातों को जगना,

वो कंधे पर तेरे 

मेरा सर रखकर सोना,

ये कुछ भी तो नही 

मेरे पास ओ कान्हा,

है फिर भी ये कैसी लगन तुमसे कान्हा?

है फिर भी ये कैसी लगन तुमसे कान्हा?

#आँचल 

Tuesday, 22 December 2020

बिन प्रयास न होगा अब प्रभात


ध-धू करके जल रही आग,
सुख-स्वप्न हुए जन के सब खाक,
उठ रहा घोर चहुँ ओर चीत्कार,
सुनता न कोई यह दारुण पुकार,

घनघोर घिरा है जो अंधियार 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

कर मर्यादाएँ सब छार-छार 
सौ झूठ पर जो ठनी रार,
हुआ सत्य पर फिर प्रहार
और सरदार हुए सारे मक्कार,

तब लगा रही भारती गुहार 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

जो संकट में राष्ट्र को जान के,
सो रहे हैं चादर तान के,
कोई डालो निद्रा में व्यवधान,
और जागरण का करो शंखनाद,

हो जाओ अब रण को तैयार,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

हे रणभूमि में मौन खड़े 
कविवर क्यों रण से विमुख हुए?
जब लूटे दिनकर को व्यभिचार 
निकालो तुम भी तरकश से बाण,

और जला लो क्रांति की मशाल 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

हो एकमत एक प्राण बनो,
अधिकारों पर अपने अधिकार करो,
संक्रांत का तत्क्षण दान करो,
हो स्वयं दीप्त प्रकाश करो,

तब होगा तम का पूर्ण विनाश,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

#आँचल 

Saturday, 31 October 2020

शाही दावत का न्योता

 


https://youtu.be/c0jPEvMUDWA

आओ बच्चों सुनो कहानी,

शेर खान की हो रही शादी!

डुगडुगी बजाकर भालू ने 

शाही संदेश सुनाया है,

शाही दावत का न्योता 

राजा ने सबको भेजवाया है।

होंगे दावत में शाही पकवान,

केसर-कुल्फी,बंगाली मिष्ठान,

चाट,कचौड़ी,चटनी तीखी,

दही- बड़े और रबड़ी मीठी।

सुनकर यह संदेश सभी के 

मुँह में पानी आया है,

बिन कुछ सोचे-समझे सबने 

तत्क्षण न्योता स्वीकारा है।

पर वही खड़ा एक नटखट बंदर 

समझ गया था चाल सब झटपट,

न्योते के पीछे राजा ने 

कुछ तो जाल बिछाया है,

मत स्वीकार करो यह न्योता 

बंदर ने सबको चेताया है।

पर लालच ने हर ली थी 

कुछ ऐसे सबकी बुद्धि,

लाख जतन करके भी 

बंदर से ना सुलझी गुत्थी।

अब बंदर की सब बात भुलाकर 

शादी में चले सब बनठन कर,

जो पहुँचे सब शादी में तो 

न मंडप था न कोई वर था,

चारों ओर शेरों का जमघट 

और प्राणों पर संकट था।

न मानी क्यों बात बंदर की?

सब लाख बार पछताए,

लालच का फल पाकर 

सब घबराए-चिल्लाए।

सुनकर सबका शोर विकट 

बंदर जो था सतत सजग 

तत्क्षण आया चिल्लाकर

सब भागो प्राण बचाकर,

मोटे-तगड़े,मूँछों वाले

चार अहेरी आए हैं,

जो घूम रहे हैं जंगल में 

संग ढेरों हथियार लाए हैं।

बोल रहा था उनमें से एक कि 

अबतक चार को मारा है,

अबकी बार तो दस शेरों पर 

हमको घात लगाना है। 

बस इतना कहकर बंदर ने 

जो शेरों को भरमाया,

छोटी सी युक्ति के आगे 

शेरों का सर चकराया।

काँप गए सब थर-थर ऐसे 

भागे प्राण बचाकर,

इसीलिए कहते हैं बच्चों 

भुगतोगे लालच में आकर।


#आँचल 

Sunday, 18 October 2020

भाग्य का जो चढ़ा दिवाकर

 

अब खो गए वो जगमग तारे,

अंधेरी रातें बीती जिनके सहारे,

है भाग्य का जो चढ़ा दिवाकर,

डोलते- फिरते हैं भंवरे सारे।


क्या हुए वो पत्थर सब एक किनारे?

मैं बढ़ा था जिनकी ठोकर के सहारे,

अब राह में मेरे फूल बिछाकर 

कर रहें हैं स्वागत किस स्वार्थ के मारे?


आगे फैले थे जिनके कल हाथ हमारे,

आज खड़े हैं आकर वो द्वार हमारे।

जो देखा पलभर को पीछे मुड़कर,

पाया फिर खुद को हाथ पसारे।


#आँचल 

Sunday, 26 July 2020

ए सभी देश के धीश सुनो



ए सभी देश के धीश सुनो,
नापाक पाक और चीन सुनो,
हम माटी के रखवाले हैं,
कारगिल के वही मतवाले हैं,
जिसने फ़तह की तारीख़ों को 
लहू से लिखना जाना है,
जिसके भुजबल का लोहा 
तीनों काल ने माना है,
जिसके शौर्य और सेना का 
दूजा न कोई सानी है,
चढ़ता सूरज भी जिसको नमन करे
हम रणधीर वही अभिमानी हैं,
हम वंशज मनोज और बत्रा के
सब बिखरे हमसे टकरा के,
हम निश्चित शांति-पुजारी हैं
पर समर-गीत के आशीक भी,
हमे हलके में लेना पड़ेगा भारी 
है चेतावनी यही आख़िरी हमारी,
जो आँख उठाकर तुमने देखा 
तो हमने भी भृकुटी तानी है,
तेरी एक हिमाकत और 
हमारी शमशीर पे गर्दन तुम्हारी है।
#आँचल 
#कारगिल_विजय_दिवस 

Sunday, 21 June 2020

योग द्वारा मानव विकास


मनुष्य का यह तन ईश्वर का वह अद्भुत वरदान है जिसे हम #योग द्वारा और निखार सकते हैं। योग न केवल हमे तन से अपितु मन के भी समस्त रोगों से,विकार से लड़ने और उससे मुक्त होने की क्षमता प्रदान करता है। योग हमे हमारी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने योग्य भी बनाता है और हमे हर नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। निरंतर योगाभ्यास में तपते हुए हमारी यह क्षणभंगुर काया हमे माया मुक्त करके हमारी आत्मा से और आत्मा में लीन परमात्मा से भी मिलवाती है। अर्थात् योग मात्र तन का व्यायाम नही अपितु यह वह ज्ञान या यूँ कहें कि वह विज्ञान है जो मानव तन की समस्त शक्तियों को जागृत कर उसे अपने अंतर में पूरे ब्रह्मांड का दर्शन करवाते हुए उसी ब्रह्मांड में स्वयं का दर्शन करवाता है। अर्थात् योग हमे ध्यान के माध्यम से इस संसार का पूर्ण ज्ञान कराता है। निरंतर योगाभ्यास पंचतत्व से बने इस तन को प्रकृति से जोड़ता है और यही हमे समस्त सिद्धियों का धनी भी बनाता है। योगाभ्यास द्वारा अपनी सप्त कुंडलियों को जागृत कर हम अपने अंतर में उस परमशक्ति का परिचय पा सकते हैं जिसने इस पूरे संसार की रचना की है। वास्तव में यह संसार कोई चमत्कार नही अपितु योगविज्ञान द्वारा रचा गया है और यही इस संसार का पालन और संहार भी करता है। अर्थात् योग का मार्ग मानव के विकास का मार्ग है जिस पर चलकर मनुष्य स्वयं के साथ-साथ पूरी सृष्टि का विकास करता है। अफ़सोस इस बात का है कि आज मनुष्य योग-ध्यान के स्थान पर भोग-ध्यान की ओर बढ़ चला है। भोग के पीछे भागते हुए हम पतन की ओर आ गए और योग की महत्ता को भूल गए। आज योग को पुनः अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि यही वह साधन है जो मनुष्य को विकास का उचित मार्ग देगा।
#आँचल 

Friday, 29 May 2020

लघुकथा - सियासतगंज बस हादसा


हफ़्तों से पैदल ही मीलों का सफ़र तय कर रहे प्रवासी मज़दूर अपने लिए भेजी गई स्पेशल बस की सूचना मिलते ही बस की ओर तेज़ी से बढ़ते हैं।

" भला हो भैया सरकार का जो हम मज़दूरों के लिए कम से कम बस की सुविधा तो करवाई वरना इस भीषण गर्मी में चलते-चलते हमारे पैर तो अब जवाब दे चुके थे।अरे घर क्या, इस भुखमरी और कोरोना नामक महामारी के बीच हम तो सीधा परमधाम पहुँचते। "
भोलाराम बस में चढ़ते हुए बोला।

अपने पैरों में पड़े छालों को देखता रामगोपाल यह सुनकर कुछ चिढ़ता हुआ बोला -
" हाँ-हाँ जो प्राणों सहित घर पहुँच जाओ तो सरकार और भगवान दोनों के गुण गा लेना। अब बैठो जल्दी,बस चलने वाली है।"

भोलाराम ज़ोर से हँसते हुए बोला -
" अरे भैया तुम तो जब देखो तब कभी ऊपर वाली सरकार तो कभी नीचे वाली सरकार को कठघरे में खड़ा कर देते हो। अरे तुमको तो वकील होना था,मज़दूर कैसे बन गए?"
रामगोपाल कुप्पा जैसा मुँह फुलाकर खिड़की के बाहर देखता है और बस चल पड़ती है। भोलाराम की गठरी से कुछ आवाज़ आती है। रामगोपाल पूछता है - 
" यह आवाज़ कैसी आ रही तुम्हारी गठरी से? "
" अरे यह आवाज़! यह तो झुनझुने की है। हमारी बिटिया तीन महीने की हो गई और हम अब तक उसे देखने भी न जा पाए। उसके आने की ख़बर मिलने पर लिए थे। "
भोलाराम अपनी आँखों में अपनी बिटिया के लिए हज़ार सपने लिए गठरी से झुनझुना निकालते हुए बोलता है कि तभी एक ज़ोर की आवाज़ आती है।

" सियासतगंज से इस वक़्त की बड़ी ख़बर। प्रवासी मज़दूरों को ले जा रही स्पेशल बस की हुई ट्रक से टक्कर। ड्राइवर समेत 12 मज़दूरों की दर्दनाक मौत और 8 घायल। "
कैमरामैन अजीत के साथ संवाददाता करिश्मा बोलती है।

घायल रामगोपाल नम आँखों से भोलाराम की ओर देखते हुए उसके हाथों से झुनझुना ले लेता है और वॉर्ड बॉय भोलाराम के शव को अन्य मृतकों के साथ रख देते हैं।

#आँचल 

Thursday, 21 May 2020

प्रथम एकांकी - मीरा और जीव गोस्वामी




(पर्दा उठता है )
सूत्रधार -   एक जोगन राजस्थानी 
              और बृज की है ये कहानी
               कृष्णा के गुण गाती आई  
          मीरा प्रेम दीवानी।
              बृज ठहरी रसिकों की भूमि,
            भक्तों और संतों की भूमि,
            यहीं-कहीं  जाना मीरा ने 
           ठहरे जीव गोस्वामी।

मीरा -   ओह! सखी बड़ भाग हमारे 
          सुअवसर जो आज पधारे 
          भक्त शिरोमणि गोस्वामी जी के 
        दर्शन से चलो लाभ उठा लें।

सूत्रधार -   मन में श्याम और कर में वीणा,
             संग सखी ललिता आश्रम चली मीरा।
          सुध-बुध जो दे बैठी श्याम को,
        बिना कुछ जाने चली भीतर को।
      तभी एक सेवक ने टोका,
     था जाने कौनसी ऐंठ में बैठा?

सेवक -   ठहरो! ठहरो! ठहरो हे नारी!
          बोलो कौन काज पधारी?
          यूँ भीतर को बढ़ी जाती हो,
         बिन जाने-बूझे क्या आती हो?

ललिता सखी -   आना-जाना तो सब हरि जाने,
                     हम उसके चाकर-चाकरी ही जाने।
                  पद -पंकज आगे जो करें मन अर्पण,
              हम आए उन गोस्वामी जी के दर्शन पाने।

मीरा -   है सुना गोस्वामी जी यहीं ठहरे,
         हम आए हैं उनकी संगत पाने।
       भैया अब तो राह ना रोको,
         हम आए हैं गिरधर की राह को जाने।

सेवक -   कोई दूजी राह पकड़ वैरागन 
         यह राह नहीं तुम्हारी।
         यहाँ वर्जित है प्रवेश नारी का,
        क्या ये बात न तूने जानी?

सूत्रधार -   आह! ये क्या सुना?
              क्या ठीक सुना मैंने?
            वर्जित प्रवेश नारी का 
           बृज के किस कोने में?

          स्तब्ध खड़ी ललिता,
          देखो स्तब्ध है बृज की माटी भी,
          पर मंद-मंद मुसकाए मीरा 
          यही तो पहचान है ज्ञानी की।

मीरा -   नारी का प्रवेश यहाँ वर्जित!
           भटक गये हम राह कदाचित्।
           भैया धन्य उपकार तुम्हारा,
           जो घोर अनर्थ से हमे बचाया,
           गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे 
          इस भेद से तुमने पर्दा उठाया।

सूत्रधार -   कौन से भेद से पर्दा उठाया?
               सेवक को कुछ समझ ना आया,
            माथा उसका चकराया।

सेवक -   गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे!
            हैं कैसे अनर्गल वचन तुम्हारे?
            बोली हो क्या बिना विचारे?

मीरा -   मैं अज्ञानी भला क्या बोलूँगी?
            संतों की सुनी ही दोहराऊँगी।

सूत्रधार -   इधर उलझाकर सेवक को वचनों में 
           मीरा तो सखी संग लौट चलीं,
         और उधर आश्रम के भीतर 
       बात आग-सी फैल गई।
       जीव गोस्वामी भी क्या बचते 
       उनके कानों तक भी पहुँच गई ,
     बात पुरुष होने वाली 
    अचरज में सबको डाल गई।

जीव गोस्वामी -   कैसी उद्दंड नारी है यह!
                      या कोई परमज्ञानी है?
                      जोगन का चोला ओढ़े 
                      यह कौन श्याम दीवानी है?

सूत्रधार -   अब जिज्ञासा की सुनो कहानी,
             जैसे प्यासा कोई ढूँढ़े पानी,
             भूलकर अपने नियम सब कट्टर 
            मीरा को ढूँढ रहे गोस्वामी।
           गली-गली संग सेवक के भटके,
           जो सुने पद सुंदर पांव भी अटके।

(मीरा पद गा रहीं  )


मीरा -   सूली ऊपर सेज हमारी, 
        सोवण किस बिध होय।
            गगन मंडल पर सेज पिया की,         मिलणा किस बिध  होय॥
 दरद की मारी बन-बन डोलूं 
बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी 
जद बैद सांवरिया होय॥

जीव गोस्वामी -   आहा! कितना सुंदर,कितना अनुपम,
                   सुनकर जैसे कट गये सब बंधन।
                    है यह कौन विरहिणी जो श्याम मगन?
                     पीड़ा से जिसकी लगी लगन !

सेवक -   अनर्गल से थे जिसके वचन 
           यही है प्रभु वो वैरागन ।

सूत्रधार -   जहाँ गुंजित हो प्रश्नों का शोर,
              वहाँ कैसे ना हो ज्ञान की भोर?
           थामकर जिज्ञासा की डोर,
             गोस्वामी जी बढ़े मीरा की ओर।

जीव गोस्वामी -   श्याम नाम को धर अधरों पर,
                       गीत विरह-प्रेम का गाती हो।
                       हे जोगन क्या नाम तुम्हारा?
                      तुम कौन देश से आती हो?

मीरा -   हम देश से उसके आए हैं,
        देश उसी के जाना है।
         झूठे हैं सब नाम जगत्‌ के,
        सच तो बस मेरा कान्हा है।
         जो पूछें आप इस तन की,भ्रम की,
    मीरा नाम अभागा है।
        राजपूताना कुल-मर्यादा, सबको मैंने त्यागा है,
       तोड़कर बंधन मिथ्या जग से 
       पति गिरधर को माना है।

जीव गोस्वामी -   तज भ्रम,ब्रह्म की ओर चली,
                        जान पड़ती हो तुम विदुषी कोई,
                      क्या इतना भी ज्ञान नही तुमको?
                      नारी से मिलता नही ब्रह्मचारी कोई।
                   क्या अनर्गल थे वे वचन तुम्हारे,
                  या छिपा था उसमें अर्थ भी कोई?

सूत्रधार -   करबद्ध खड़ी मीरा मुसकाए,
             होकर विनम्र गूढ़ वचन सुनाए।

मीरा -   हम तो ठहरे मूढ़ी, अज्ञानी
          अर्थ-अनर्थ को क्या जानें?
           बृज में जो सुनी संतों की वाणी 
         द्वारे आश्रम के वही दोहरा आए।
         हम तो समझे थे गोस्वामी जी 
          इस जग में सब प्रकृति स्वरूप नारी हैं
          और पुरुष है वो एकल परमात्मा,
        पर भेद आज यह जान गए 
        है प्रतिद्वंदी उसका भी कोई महात्मा।

सूत्रधार -   आंखें गोस्वामी जी की भीग गयीं !
            कदाचित् भ्रम की धूल सब धुल गई ।

जीव गोस्वामी -   धन्य! धन्य! हो धन्य तुम मीरा,
                       हो भक्ति - ज्ञान की पावन सरिता।
           ब्र्म्ह     क्षमा!क्षमा!क्षमा करो गिरधर
                   पड़ गयी अब मेरे अहं को ठोकर ,
                    'मैं ' में ही मैं तो भटक रहा था,
                 भक्ति की राह में अटक गया था।
                 चला था तुमको पुरूषार्थ से पाने,
                 समर्पित होने से चूक गया था ।

मीरा -   ब्रह्मचर्य नही कोई भेद सिखाता ,
        ये तो बस ब्रह्म का ज्ञान कराता,
       मन के विकार से मुक्ति दिलाता,
      प्रभु के ध्यान में  मन को रमाता,
    आत्मा से आत्मा का भेद यह कैसा?
    ब्रह्मचर्य  तो है इस तन की तपस्या ।

जीव गोस्वामी -   आहा ! सुंदर! अति सुंदर।              करी व्याख्या ।
                   यह तन तो बस माया की काया
                  आत्मा में है परब्रम्ह की छाया।

सूत्रधार -   आहा ! कितना अद्भुत संदेश है यह।
              करो पुरूषार्थ तो निश्चित जग जीतोगे ,
             होकर समर्पित जगतपति  जीतोगे ।
             जब होता है संतो का संगम ,
         तभी होता है ज्ञान का मंथन।
          अब गोस्वामी जी मीरा से करें निवेदन।

जीव गोस्वामी -   हे श्याम विरहिणी, हे श्याम मगन,
                    स्वीकार करो मेरा निवेदन।
                  अपने कृष्णमय सुंदर पद गाकर
                   आश्रम मेरा कर दो पावन।

सूत्रधार -   मीरा, ललिता संग गोस्वामी जी सेवक
           बढने लगे आश्रम की ओर,
          मीरा के सुंदर भजनों से
            ब्रज मंडल हुआ भक्तिविभोर ।

( पर्दा गिरता है )

#आँचल

Monday, 4 May 2020

मयूरा के भाग वंशी की तान!


वेणु की सुन कर पुकार,
गोपिन सब सुध-बुध गयीं हार,
गड़ - गड़ मेघों की मिली ताल,
चित मयूरा पर हरि गये हार,
हाय! गोपिन के मन में डाह,
मयूरा के भाग वंशी की तान!
छलिया के छल को गयीं जान,
संग राधा गोपिन सब रचे स्वाँग,
छम - छम मयूरा संग हुई मयूर,
नाचे राधा? नाचे मयूर?
अचरज में हाय! पड़ गये श्याम,
मोहे राधा जब आठों याम!
तब माया-मयूर ने लिया जान 
कोटिशः वंदन,कोटिशः प्रणाम,
आगे जिनके झुकते हैं श्याम,
राधा से ही भक्ति और ज्ञान।
#आँचल 

Friday, 1 May 2020

क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?


तप रहा वह धूप से या नीतियों की मार से?
लड़ रहा है भाग्य से या पूँजीपतियों के प्रहार से?
वह चला रहा है छेनी क्या रोटी के इंतज़ाम को?
या तोड़ता है अपनी आँखों में पल रहे सपने?
जोड़-जोड़ के ईंटों को जो ऊँची इमारतें बनाता है,
खुले आसमान के नीचे क्यों अपनी रातें बिताता है?
झेलकर मार मौसम की जो अन्न उगाता है,
वह वीर माटी का क्यों फाँसी पर झूल जाता है?
भाषणों में जिसके नाम पर कोई वोट पाता है,
क्यों जीत के बाद उसको भूल जाता है?
ऋण है श्रमिक का देश पर जो देश बढ़ता है,
तो क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?

#आँचल 

Wednesday, 22 April 2020

क्या काग़ज़ से कोरोना भी डरे?

वात्सल्य में ऐसे विवश हुए
धृतराष्ट्र सब ताले तोड़ चले,
अवाक् ज़माना देख रहा
कैसे क़ानून मुरीद हुआ?
जो ग़रीब हुआ वो सोच रहा 
संग अपने नियमों में भेद हुआ,
हम थे घर को तरस रहे 
बिन घोड़ा-गाड़ी ही दौड़ पड़े,
क्यों हम पर लाठी-बौछार पड़ी?
एक काग़ज़ पर राजा की बात बनी!
काग़ज़ आगे सब नियम धरे!
क्या काग़ज़ से कोरोना भी डरे?
वात्सल्य विजय के ढोल बजे 
' कर्तव्य ' परास्त भूमि में पड़े।

#आँचल 

Tuesday, 21 April 2020

मौत के असफ़ार में आख़िर कब तक बचोगे?


आदमियत भूल गया था जो वो आदमी क़ैद है,
क़ुदरत पर क़हर ढ़ानेवालों ये रुस्वा वक़्त का तैश है।

लूटकर आशियाँ जिनका अपना मकाँ बनाते हो,
आज बंद तुम दीवारों में और इन परिंदों के ऐश हैं।

इन बंद इबादत-ख़ानों में अब कहाँ कोई हितैष है,
वो जिन पर थूकते हो तुम वो ख़ुदा हैं जो मुस्तैद हैं।

जिससे हारा हो ज़माना भला उससे कैसे जीतोगे?
जब रंजिशों को पालकर तुम आपस में ही जूझोगे।

मजबूर हो तुम जो मीलों पैदल ही चलोगे,
भला हाकिमों के ऐब देखने की गुस्ताख़ी कैसे करोगे?

ग़र कोरोना से बचे तो भूख या भीड़ से मरोगे,
मौत के असफ़ार में आख़िर कब तक बचोगे?

#आँचल 

Sunday, 19 April 2020

मेरे डैडी



बिन इबादत मिलें जो वो ख़ुदा आप हैं,
नाम जिनसे मिला वो पिता आप हैं,
बरकतों के पीछे की दुआ आप हैं,
हम ज़हमत से दूर,रहमतों में आप हैं।

दस्तूर जहाँ का सब जाना आपसे,
अनुशासन का मोल पहचाना आपसे,
कर्तव्यों की राह को दिखाया आपने,
मनुजता ही धर्म सिखलाया आपने।

मान,ईमान हैं बहुमूल्य रतन,
मिलते ना फल बिन किए जतन,
संस्कारों से हीन का होता पतन,
आप ही से सीखे ये अनमोल वचन।

जन्नत का सारा सुख है वहाँ
होते पिता के पाँव जहाँ,
आप ही हैं धरती, आप ही आसमाँ,
आप से बड़ा ना रब ना जहाँ।

#आँचल 

Wednesday, 8 April 2020

सुनो विनती हे राम दुलारे


भव सागर जो पार करे,
भक्ति वो पतवार बने।
बस राम नाम का बलधारे,
हनुमत सागर को पार करें।
जो धर्मशील हो धीर धरे,
बल,बुद्धि उसके साथ खड़े।
यह भेद राम का जान गए,
सो ही प्रभु के तुम दास बने।
अब मूरत में भगवान खड़े,
अंतर में रावण राज करे।
श्री राम चरित सब भूल रहे,
फिर झूठी माला क्यों फेर रहे?
सुनो विनती हे राम दुलारे,
हरो कुमति,सुमति जग व्यापे।
भीतर दंभी जो रावण राजे,
लंका दहन देख कर काँपे।
तब परमधर्म परहित को जाने,
सकल चरित राम हो जाए।
#आँचल 

Monday, 23 March 2020

कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?



कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?-2

आँगन पड़ी दरार है,
बँटता मेरा परिवार है,
झूठी धरम की रार है,
कैसा ये व्याभिचार है!
तम कर रहा अधिकार है,
बुझने लगी मशाल है,
सत की मशालों को पुनः जलाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

आँगन मेरे विषाद है,
प्रीतिवियोग शाप है,
कोई अधमरी सी लाश है,
मानवता जिसका नाम है,
करुणा थी जिसकी प्रेयसी,
रण में धरम के चल बसी,
उस प्रेयसी को अब यहाँ बुलाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

आँगन बिछी बिसात है,
शकुनी की दोहरी चाल है,
लगी दाँव पर जो मात है,
बेटों की ये सौगात है,
भटके वतन के लाल हैं,
निश्चित धरम की मात है,
गरिमा धरम की अब यहाँ बचाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?
राग अनुराग का गाऊँ कैसे?

#आँचल 

Wednesday, 11 March 2020

" अक्षय गौरव ई-पत्रिका " का जुलाई - दिसम्बर 2019 संयुक्त अंक आ चुका है।

देर आयी पर दुरुस्त आयी  " अक्षय गौरव ई-पत्रिका " का जुलाई - दिसम्बर  2019 संयुक्त अंक आ चुका है। पत्रिका का हार्दिक स्वागत करते हुए हम संपादकीय मंडल को हार्दिक बधाई प्रेषित करते हैं और सभी चयनित रचनाओं के रचनाकारों को भी ढेरों शुभकामनाएँ देते हैं। पत्रिका के साहित्य समर्पित भाव को तो हम सदा ही नमन करते आए हैं। साथ ही संपादक मंडल के कर्मनिष्ठ भाव और लगन को भी मेरा सादर प्रणाम 🙏। सभी की मेहनत का यह शुभ परिणाम है। जहाँ भाव समर्पण का होता है वहाँ नारायण भी परीक्षा लेने से नही चूकते। बस कुछ ऐसा ही हुआ था जो पत्रिका समय पर ना आ सकी किंतु हमारे प्रिय पाठकों का पत्रिका के प्रति जो स्नेह है उसे देखते हुए पत्रिका को शीघ्र लाने हेतु हमारे आदरणीय रवीन्द्र सर ने पुनः इस पर काम किया। आदरणीय सर की इसके पीछे लगी मेहनत किसी से छुपी नहीं है अतः आदरणीय सर की सराहना तो बनती है।
अब पाठकों का इंतज़ार खत्म हुआ। अक्षय गौरव ई - पत्रिका  विभिन्न रसों और अलंकारों से सुसज्जित होकर,भिन्न विधाओं के संग प्रस्तुत है। आप सभी सुधी पाठकगण इसे पढ़िए,इसका आनंद लीजिए और अपनी शुभकामनाएँ दीजिए।


पत्रिका पढ़ने हेतु 

अक्षय गौरव ई - पत्रिका 


आइए अब आपका परिचय पत्रिका के कर्मनिष्ठ संपादक मंडल से भी करवाते हैं।

संपादक मंडल: अक्षय गौरव पत्रिका

संरक्षक

डॉ. फखरे आलम खान

वरिष्ठ संपादकीय सलाहकार

प्रोफ़ेसर गोपेश मोहन जैसवाल

संपादकीय सलाहकार

न्यायविद डॉ.चन्द्रभाल सुकुमार

प्रधान संपादक

विश्वमोहन

संपादक

रवीन्द्र सिंह यादव

संयोजक

ध्रुव सिंह 'एकलव्य'

संपादकीय टीम: पद्य खंड

संपादक- साधना वैद

वरिष्ठ उप संपादक -

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

उप संपादक -

अनीता लागुरी 'अनु'

संपादकीय टीम: गद्य खंड

संपादक-

विभा रानी श्रीवास्तव 'दंतमुक्ता'

वरिष्ठ उप संपादक-

सुधा सिंह 'व्याघ्र'

उप संपादक -

शीरीं तस्कीन

संपादकीय टीम: बाल-साहित्य

संपादक -

रेणुबाला

वरिष्ठ उप संपादक -

पम्मी सिंह 'तृप्ति'

उप संपादक -

आँचल पाण्डेय

साहित्यिक गतिविधियाँ

संपादक : मीना भारद्वाज

तकनीकी विशेषज्ञ -

राजेंद्र सिंह विष्ट

आदरणीय रवीन्द्र सर और आदरणीय ध्रुव सर को विशेष बधाई और साथ ही आभार भी अनेक बाधाओं को पार कर पत्रिका को शीघ्र पाठकों तक पहुँचाने हेतु ।
सादर प्रणाम 🙏
-आँचल

Tuesday, 3 March 2020

जो जागा वो सूरज बनता है



सूरज चाचा एक बात बताओ 
क्या लगे नींद नही तुमको प्यारी?
तुम सुबह सवेरे जग जाते हो,
जग जाती है दुनिया सारी।

क्या छड़ी है कोई पास तुम्हारे
जिससे डरते चांद और तारे?
नभ में खेल रहे थे सारे 
देख तुम्हें भागे बेचारे।

दो पल भी तुमसे देर ना होती!
क्या घड़ी भी तुमसे पूछ के चलती?
हरी- भरी यह सुंदर धरती 
क्यों देख तुम्हें इतना हर्षाती?

चीं-चीं करती चिड़िया जागी,
पेड़ पे बैठी कोयल गाती,
गीत सुनाकर मुझे जगाती,
स्वप्न लोक से मुझे बुलाती।

मैं रानी गुड़िया बन घूम रहीं थी,
मीठे सपने देख रही थी,
जो माँ-बाबा के नाम को रोशन कर दे 
वो तारे अंबर से माँग रही थी।

तभी तुम्हारी किरणों ने आकर 
सपने मेरे तोड़ दिए,
जो तारे माँगे थे अंबर से,
वो अंबर में ही छोड़ दिए।

हा हा हा हा,हा हा हा हा,
पेट पकड़ हँसे सूरज चाचा,
बोले मन तेरा भोला कितना?
क्या सोकर पूरा होता कोई सपना?

अब सोचो जो  एक दिन ना आता मैं,
अंबर से दूर कहीं सो जाता मैं,
अंधियारा जग में छा जाता,
रंग सुंदर धरती का खो जाता।

जो देख रहे यह फूल खिले,
मँडराते इनपर कितने भँवरे!
बेचारे सब मुरझा जाते,
क्या तब भँवरे रस चखने आते?

ये चीं चीं करती चिड़िया रानी 
क्या दाना लाने जा पाती?
भूख से रोते बच्चों का अपने 
पेट कहाँ से भर पाती?

सपनों सी सुंदर इस धरती का 
एक दिन में रूप बदल जाता,
ना कोयल गीत सुना पाती,
ना मयूरा नाच दिखा पाता।

इसीलिए तो प्यारे बच्चों 
मैं ठीक समय पर आता हूँ,
संग आशा की किरणें लाता हूँ,
अँधेरे को दूर भगाता हूँ।

जगाता हूँ तुम सबको,
आगे बढ़ने की राह दिखाता हूँ,
धरती को रंग सुंदर देकर,
अपने सपने पूरा करता हूँ।

ना सोता हूँ,बस जागा हूँ,
यह पाठ तुम्हें भी पढ़ाता हूँ।
जो सोता वो सब खोता है 
जो जागा वो सूरज बनता है।

दमकता है इतना कि 
सारे जग को रोशन करता है,
नतमस्तक होकर जग सारा 
अभिनंदन उसका करता है।

#आँचल 

भोले भले हो



भोले, भले हो,नादान हो,
बच्चों तुम्ही तो भगवान हो। -2

मन में तुम्हारे कोई मैल नही है,
छल का तुम्हारा खेल नही है,
दिल में तुम्हारे जो अच्छाई है,
कहते उसी को सच्चाई है।
कोमल कली हो,फुलवारी हो,
आशा के तुम सब पुरवाई हो।

भोले,भले हो........

नज़रें तुम्हारी कोई भेद ना जाने,
जग में किसी को गैर ना माने,
पल में जो रूठो तो पल में ही मानो,
बैर ना जानो बस प्रेम ही बाँटो।
लड़कपन की सुंदर परछाई हो,
खुशियों भरी वो अलमारी हो।

भोले,भले हो..........

उलझे सवालों की तुम दास्तान,
जवाबों में ढूंढों नया सा जहाँ,
अंबर में तैरो,सागर में उड़ लो,
ज़मीं पे सितारों की कक्षा लगा लो।
इंद्रधनुष की रंगदानी हो,
नई दुनिया जो रंग दे वो पिचकारी हो।

भोले,भले हो..........

भोले,भले हो,नादन हो,
बच्चों तुम्ही तो भगवान हो।

#आँचल 

Tuesday, 11 February 2020

धूल हूँ जो उड़ चली हूँ



धूल हूँ जो उड़ चली हूँ राह पाने को,
ढूँढ़ती हूँ गली-गली में साँवरे मन को।-2

लक्ष्य को जो विलग हुई हूँ घने तरूवर से,
भटकती जो अटक गयी कांटो की झाड़ी में,
गति के झोंकों से बढ़ूँ,वीरान पाती हूँ,
माटी में जाकर मिलूँ,मैं माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़ ......

क्षुब्ध-सी मैं ढुलक रहीं हूँ,लुब्ध कंकड़ हूँ,
ढल रही हूँ,घिस रही हूँ विकार अंतर के,
अचल से होकर पृथक मैं सूक्ष्म-सा कण हूँ,
माटी में जाकर मिलूँ मैं माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़ ........

शून्य हूँ,निस्पंद हूँ,मैं मधुर स्पंदन हूँ,
अंत का आनंद हूँ,आधार क्रंदन हूँ,
परिणय की वेदि पे बैठी राख होती हूँ,
माटी से जाकर मिलूँ मैं,माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़.........

धूल हूँ जो उड़ चली हूँ राह पाने को,
ढूँढ़ती गली गली में साँवरे मन को।

#आँचल 

Thursday, 30 January 2020

एक रोटी चार टुकड़े


एक रोटी चार टुकड़े बाँटकर खाते रहे,
हम तो अपना पेट यूँ ही काटकर जीते रहे।

ए गुले गुलज़ार तेरी थाल में बोटी सजी,
मांस अपना दे के तेरा पेट पालते रहे।

है सितम का घात दुगना,आग भी ठंडी पड़ी,
ओढ़कर खुद को ही हमने सर्द से है जंग लड़ी।

ताप लो तुम हाथ अपने,कौडे की लपटें उठी,
तेरी ख़िदमत को ही तो झोपड़ी मेरी जली।

आँसुओं में डूबती है बस्तियाँ ईमान की,
जल चुकी हैं पोथियाँ जबसे धर्म की,ज्ञान की।

ए गुले गुलज़ार तेरे सिर पे जो पगड़ी सजी,
दांव पर रख के वतन को सोने की कलगी लगी।

दीन भी क्या दीन जाने? रूह तक गिरवी पड़ी,
साज़िशों की आँधियों में सरज़मीन जिसकी लुटी।

खेलते हो खेल तुम जो तख़्त की गर्दिश है ये,
बिक रही हैं लाशें जो,गफ़लत में हम बैठे नही।

#आँचल 

Friday, 24 January 2020

क्या सोता भारत जाग रहा है?



धधक उठी ज्वाला नभ उर में,
हाहाकार मचा कलरव में,
विपुल समर को घन अब रण में,
उठी चित्कार सुनो मनवन में,
थे तृण हरित,सब शूल हुए हैं,
त्राहि त्राहि कर धूल उड़े है,
पतित हुई अब मानसी गंगा,
सत्य,धर्म का झूठा धंधा,

अरुणा का किसने रूप हरा है?
भोर तिमिर संग खेल रहा है!!-2
क्या सोता भारत जाग रहा है?-2

तुंग हिमालय भी दहला है,
दिल्ली का दिल फिर बहला है,
हुड़दंग बंग में खूब मचा है,
लखनपुरी में भी लोचा है,
दूषित हुई बयार सदन की,
रोषित हुई पुकार रुदन की,
सूर-शौर्य का बिक गया तमगा,
कलम गा रहा झूठ की प्रभुता,

युग का कैसा ये दौर खड़ा है?
जागृति का खूब स्वाँग रचा है!!-2
क्या सोता भारत जाग रहा है?-2

घने धुंध की घनी कृपा है,
नीति का आशय धुंधला है,
धर धरना बैठी गरिमा है,
सिंहासन की सब महिमा है,
ठगी खड़ी कठ पर जनता है,
चूल्हे पर जल रही चिता है,
राजनीति की रोटी सिक गयी,
नेताओं की दाल भी गल गयी,

सब खोकर भी कोई सोता है?
सूर्य पतन का जाग चुका है!!-2
क्या सोता भारत जाग रहा है?-2

#आँचल 

Monday, 6 January 2020

शेर-ओ-अदब का ये शहर



जो ढूँढ़ते हो अदब,तहज़ीब अगर
तो अवध की गलियों में आ जाना
और चाहते हो गर मुस्कुराना तो
दिल -ए-लखनऊ से दिल लगाना।

महका खज़ाना,है यही लज्जतों का ठिकाना,
कभी खस्ता,कचौड़ी तो कभी कबाबी उल्फताना।
डालोगे शामियाना,यही ज़मीन लिखाओगे,
राम आसरे की मलाई गिलौरी और कहाँ पाओगे?

जलते नही चराग यहाँ,रोशन हुआ करते हैं,
अनपड़ भी फब्तियो से लाजवाब किया करते हैं,
ये शहर-ए-अदब है जनाब,बेगपाती इसकी जुबां है,
बातों बातों में यहाँ लोग नज़्में पढ़ा करते हैं।

निगहबान बंदिशों के आसमां बाँधने का दम रखते हैं,
ताल पर तोड़ बंदिश चपल पाँव से बंदगी करते हैं,
शेर -ओ-अदब की ये गलियाँ ,यहाँ सभी फ़नकार हैं,
आप मिसरे कहने की जुर्रत करिए,गिरह हम बाँधते हैं।

रगें रंगीन हैं इसकी,यूँ रोशन बाज़ार हैं,
चौक की कशीदाकारी,अमीनाबाद गुलज़ार है।
दरों-दीवार से इसके बयाँ होता इतिहास है,
लखन की ये ज़मीन,विरासतों पर नवाबी छाप है।

यहाँ तलवार-ए-साज़ पर क्रांति की पाजेब बजती है,
मौलाना - पंडित की याराना महफ़िल जमती है,
यहाँ दिलों में मोहब्बत,मुरव्वत बेशुमार रखते हैं,
यूँ हीं नही जुबां पे पहले आप,पहले आप रखते हैं।

#आँचल