सूत्रधार - एक जोगन राजस्थानी
और बृज की है ये कहानी
कृष्णा के गुण गाती आई
मीरा प्रेम दीवानी।
बृज ठहरी रसिकों की भूमि,
भक्तों और संतों की भूमि,
यहीं-कहीं जाना मीरा ने
ठहरे जीव गोस्वामी।
मीरा - ओह! सखी बड़ भाग हमारे
सुअवसर जो आज पधारे
भक्त शिरोमणि गोस्वामी जी के
दर्शन से चलो लाभ उठा लें।
सूत्रधार - मन में श्याम और कर में वीणा,
संग सखी ललिता आश्रम चली मीरा।
सुध-बुध जो दे बैठी श्याम को,
बिना कुछ जाने चली भीतर को।
तभी एक सेवक ने टोका,
था जाने कौनसी ऐंठ में बैठा?
सेवक - ठहरो! ठहरो! ठहरो हे नारी!
बोलो कौन काज पधारी?
यूँ भीतर को बढ़ी जाती हो,
बिन जाने-बूझे क्या आती हो?
ललिता सखी - आना-जाना तो सब हरि जाने,
हम उसके चाकर-चाकरी ही जाने।
पद -पंकज आगे जो करें मन अर्पण,
हम आए उन गोस्वामी जी के दर्शन पाने।
मीरा - है सुना गोस्वामी जी यहीं ठहरे,
हम आए हैं उनकी संगत पाने।
भैया अब तो राह ना रोको,
हम आए हैं गिरधर की राह को जाने।
सेवक - कोई दूजी राह पकड़ वैरागन
यह राह नहीं तुम्हारी।
यहाँ वर्जित है प्रवेश नारी का,
क्या ये बात न तूने जानी?
सूत्रधार - आह! ये क्या सुना?
क्या ठीक सुना मैंने?
वर्जित प्रवेश नारी का
बृज के किस कोने में?
स्तब्ध खड़ी ललिता,
देखो स्तब्ध है बृज की माटी भी,
पर मंद-मंद मुसकाए मीरा
यही तो पहचान है ज्ञानी की।
मीरा - नारी का प्रवेश यहाँ वर्जित!
भटक गये हम राह कदाचित्।
भैया धन्य उपकार तुम्हारा,
जो घोर अनर्थ से हमे बचाया,
गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे
इस भेद से तुमने पर्दा उठाया।
सूत्रधार - कौन से भेद से पर्दा उठाया?
सेवक को कुछ समझ ना आया,
माथा उसका चकराया।
सेवक - गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे!
हैं कैसे अनर्गल वचन तुम्हारे?
बोली हो क्या बिना विचारे?
मीरा - मैं अज्ञानी भला क्या बोलूँगी?
संतों की सुनी ही दोहराऊँगी।
बोली हो क्या बिना विचारे?
मीरा - मैं अज्ञानी भला क्या बोलूँगी?
संतों की सुनी ही दोहराऊँगी।
सूत्रधार - इधर उलझाकर सेवक को वचनों में
मीरा तो सखी संग लौट चलीं,
और उधर आश्रम के भीतर
बात आग-सी फैल गई।
जीव गोस्वामी भी क्या बचते
उनके कानों तक भी पहुँच गई ,
बात पुरुष होने वाली
अचरज में सबको डाल गई।
जीव गोस्वामी - कैसी उद्दंड नारी है यह!
या कोई परमज्ञानी है?
जोगन का चोला ओढ़े
यह कौन श्याम दीवानी है?
सूत्रधार - अब जिज्ञासा की सुनो कहानी,
जैसे प्यासा कोई ढूँढ़े पानी,
भूलकर अपने नियम सब कट्टर
मीरा को ढूँढ रहे गोस्वामी।
गली-गली संग सेवक के भटके,
जो सुने पद सुंदर पांव भी अटके।
(मीरा पद गा रहीं )
दरद की मारी बन-बन डोलूं
बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी
जद बैद सांवरिया होय॥
जीव गोस्वामी - आहा! कितना सुंदर,कितना अनुपम,
सुनकर जैसे कट गये सब बंधन।
है यह कौन विरहिणी जो श्याम मगन?
पीड़ा से जिसकी लगी लगन !
सेवक - अनर्गल से थे जिसके वचन
यही है प्रभु वो वैरागन ।
सूत्रधार - जहाँ गुंजित हो प्रश्नों का शोर,
वहाँ कैसे ना हो ज्ञान की भोर?
थामकर जिज्ञासा की डोर,
गोस्वामी जी बढ़े मीरा की ओर।
जीव गोस्वामी - श्याम नाम को धर अधरों पर,
गीत विरह-प्रेम का गाती हो।
हे जोगन क्या नाम तुम्हारा?
तुम कौन देश से आती हो?
मीरा - हम देश से उसके आए हैं,
देश उसी के जाना है।
झूठे हैं सब नाम जगत् के,
सच तो बस मेरा कान्हा है।
जो पूछें आप इस तन की,भ्रम की,
मीरा नाम अभागा है।
राजपूताना कुल-मर्यादा, सबको मैंने त्यागा है,
तोड़कर बंधन मिथ्या जग से
पति गिरधर को माना है।
जीव गोस्वामी - तज भ्रम,ब्रह्म की ओर चली,
जान पड़ती हो तुम विदुषी कोई,
क्या इतना भी ज्ञान नही तुमको?
नारी से मिलता नही ब्रह्मचारी कोई।
क्या अनर्गल थे वे वचन तुम्हारे,
या छिपा था उसमें अर्थ भी कोई?
सूत्रधार - करबद्ध खड़ी मीरा मुसकाए,
होकर विनम्र गूढ़ वचन सुनाए।
मीरा - हम तो ठहरे मूढ़ी, अज्ञानी
अर्थ-अनर्थ को क्या जानें?
बृज में जो सुनी संतों की वाणी
द्वारे आश्रम के वही दोहरा आए।
हम तो समझे थे गोस्वामी जी
इस जग में सब प्रकृति स्वरूप नारी हैं
और पुरुष है वो एकल परमात्मा,
पर भेद आज यह जान गए
है प्रतिद्वंदी उसका भी कोई महात्मा।
सूत्रधार - आंखें गोस्वामी जी की भीग गयीं !
कदाचित् भ्रम की धूल सब धुल गई ।
जीव गोस्वामी - धन्य! धन्य! हो धन्य तुम मीरा,
हो भक्ति - ज्ञान की पावन सरिता।
ब्र्म्ह क्षमा!क्षमा!क्षमा करो गिरधर
पड़ गयी अब मेरे अहं को ठोकर ,
'मैं ' में ही मैं तो भटक रहा था,
भक्ति की राह में अटक गया था।
चला था तुमको पुरूषार्थ से पाने,
समर्पित होने से चूक गया था ।
मीरा - ब्रह्मचर्य नही कोई भेद सिखाता ,
ये तो बस ब्रह्म का ज्ञान कराता,
मन के विकार से मुक्ति दिलाता,
प्रभु के ध्यान में मन को रमाता,
आत्मा से आत्मा का भेद यह कैसा?
ब्रह्मचर्य तो है इस तन की तपस्या ।
जीव गोस्वामी - आहा ! सुंदर! अति सुंदर। करी व्याख्या ।
यह तन तो बस माया की काया
आत्मा में है परब्रम्ह की छाया।
सूत्रधार - आहा ! कितना अद्भुत संदेश है यह।
करो पुरूषार्थ तो निश्चित जग जीतोगे ,
होकर समर्पित जगतपति जीतोगे ।
जब होता है संतो का संगम ,
तभी होता है ज्ञान का मंथन।
अब गोस्वामी जी मीरा से करें निवेदन।
जीव गोस्वामी - हे श्याम विरहिणी, हे श्याम मगन,
स्वीकार करो मेरा निवेदन।
अपने कृष्णमय सुंदर पद गाकर
आश्रम मेरा कर दो पावन।
सूत्रधार - मीरा, ललिता संग गोस्वामी जी सेवक
बढने लगे आश्रम की ओर,
मीरा के सुंदर भजनों से
ब्रज मंडल हुआ भक्तिविभोर ।
( पर्दा गिरता है )
#आँचल
मीरा तो सखी संग लौट चलीं,
और उधर आश्रम के भीतर
बात आग-सी फैल गई।
जीव गोस्वामी भी क्या बचते
उनके कानों तक भी पहुँच गई ,
बात पुरुष होने वाली
अचरज में सबको डाल गई।
जीव गोस्वामी - कैसी उद्दंड नारी है यह!
या कोई परमज्ञानी है?
जोगन का चोला ओढ़े
यह कौन श्याम दीवानी है?
सूत्रधार - अब जिज्ञासा की सुनो कहानी,
जैसे प्यासा कोई ढूँढ़े पानी,
भूलकर अपने नियम सब कट्टर
मीरा को ढूँढ रहे गोस्वामी।
गली-गली संग सेवक के भटके,
जो सुने पद सुंदर पांव भी अटके।
(मीरा पद गा रहीं )
मीरा - सूली ऊपर सेज हमारी,
सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की, मिलणा किस बिध होय॥दरद की मारी बन-बन डोलूं
बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी
जद बैद सांवरिया होय॥
जीव गोस्वामी - आहा! कितना सुंदर,कितना अनुपम,
सुनकर जैसे कट गये सब बंधन।
है यह कौन विरहिणी जो श्याम मगन?
पीड़ा से जिसकी लगी लगन !
सेवक - अनर्गल से थे जिसके वचन
यही है प्रभु वो वैरागन ।
सूत्रधार - जहाँ गुंजित हो प्रश्नों का शोर,
वहाँ कैसे ना हो ज्ञान की भोर?
थामकर जिज्ञासा की डोर,
गोस्वामी जी बढ़े मीरा की ओर।
जीव गोस्वामी - श्याम नाम को धर अधरों पर,
गीत विरह-प्रेम का गाती हो।
हे जोगन क्या नाम तुम्हारा?
तुम कौन देश से आती हो?
मीरा - हम देश से उसके आए हैं,
देश उसी के जाना है।
झूठे हैं सब नाम जगत् के,
सच तो बस मेरा कान्हा है।
जो पूछें आप इस तन की,भ्रम की,
मीरा नाम अभागा है।
राजपूताना कुल-मर्यादा, सबको मैंने त्यागा है,
तोड़कर बंधन मिथ्या जग से
पति गिरधर को माना है।
जीव गोस्वामी - तज भ्रम,ब्रह्म की ओर चली,
जान पड़ती हो तुम विदुषी कोई,
क्या इतना भी ज्ञान नही तुमको?
नारी से मिलता नही ब्रह्मचारी कोई।
क्या अनर्गल थे वे वचन तुम्हारे,
या छिपा था उसमें अर्थ भी कोई?
सूत्रधार - करबद्ध खड़ी मीरा मुसकाए,
होकर विनम्र गूढ़ वचन सुनाए।
मीरा - हम तो ठहरे मूढ़ी, अज्ञानी
अर्थ-अनर्थ को क्या जानें?
बृज में जो सुनी संतों की वाणी
द्वारे आश्रम के वही दोहरा आए।
हम तो समझे थे गोस्वामी जी
इस जग में सब प्रकृति स्वरूप नारी हैं
और पुरुष है वो एकल परमात्मा,
पर भेद आज यह जान गए
है प्रतिद्वंदी उसका भी कोई महात्मा।
सूत्रधार - आंखें गोस्वामी जी की भीग गयीं !
कदाचित् भ्रम की धूल सब धुल गई ।
जीव गोस्वामी - धन्य! धन्य! हो धन्य तुम मीरा,
हो भक्ति - ज्ञान की पावन सरिता।
ब्र्म्ह क्षमा!क्षमा!क्षमा करो गिरधर
पड़ गयी अब मेरे अहं को ठोकर ,
'मैं ' में ही मैं तो भटक रहा था,
भक्ति की राह में अटक गया था।
चला था तुमको पुरूषार्थ से पाने,
समर्पित होने से चूक गया था ।
मीरा - ब्रह्मचर्य नही कोई भेद सिखाता ,
ये तो बस ब्रह्म का ज्ञान कराता,
मन के विकार से मुक्ति दिलाता,
प्रभु के ध्यान में मन को रमाता,
आत्मा से आत्मा का भेद यह कैसा?
ब्रह्मचर्य तो है इस तन की तपस्या ।
जीव गोस्वामी - आहा ! सुंदर! अति सुंदर। करी व्याख्या ।
यह तन तो बस माया की काया
आत्मा में है परब्रम्ह की छाया।
सूत्रधार - आहा ! कितना अद्भुत संदेश है यह।
करो पुरूषार्थ तो निश्चित जग जीतोगे ,
होकर समर्पित जगतपति जीतोगे ।
जब होता है संतो का संगम ,
तभी होता है ज्ञान का मंथन।
अब गोस्वामी जी मीरा से करें निवेदन।
जीव गोस्वामी - हे श्याम विरहिणी, हे श्याम मगन,
स्वीकार करो मेरा निवेदन।
अपने कृष्णमय सुंदर पद गाकर
आश्रम मेरा कर दो पावन।
सूत्रधार - मीरा, ललिता संग गोस्वामी जी सेवक
बढने लगे आश्रम की ओर,
मीरा के सुंदर भजनों से
ब्रज मंडल हुआ भक्तिविभोर ।
( पर्दा गिरता है )
#आँचल
अदभुत, विलक्षण और वाह! सराहना से परे। और अंत में ब्रह्मचर्य की इतनी सुंदर व्याख्या। माँ श्वेतपद्मासना सर्वदा अपने ज्ञान का आँचल आपको ओढ़ाए रखे! आभार, बधाई और शुभकामनाएँ आपके स्वर्णिम भविष्य की!!!
ReplyDeleteआदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
Deleteअपने सुंदर शब्दों से मेरा उत्साह बढ़ाते हेतु आपका हार्दिक आभार। आपके आशीर्वचनों को पाना तो मेरा सौभाग्य है। बहुत बहुत धन्यवाद। सुप्रभात।
अद्भुत!
ReplyDeleteविस्मयकारी लेखन और चिंतन प्रिय आँचल।
आपकी इस अप्रतिम रचनात्मकता के लिए बहुत-बहुत बधाई।
सस्नेह शुभकामनाएँ।
आदरणीया दीदी जी सादर प्रणाम 🙏
Deleteआपके इन सुंदर सराहना भरे शब्दों ने जो मेरा उत्साहवर्धन किया है उस हेतु आपका हार्दिक आभार। सुप्रभात।
प्रिय आँचल, तुम्हारी ये काव्य नाटिका पढ़कर बहुत हर्ष तो हुआ ही , उससे कहीं ज्यादा इस बात पे संतोष हुआ कि इस दुर्लभ विधा में कदम बढ़ाने वाला कोई है। इतनी सधी और अध्यात्मिकता से भरपूर इस भावपूर्ण काव्य_ एकांकी के लिए बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें। इस विधा को आगे बढ़ाओ और खूब लिखो। मेरा प्यार तुम्हारे लिए । यूँ ही आगे बढती रहो। 🌹🌹💐💐💐💐🌹🌹🌹💐💐💐
ReplyDeleteवाह अद्भुत लेखन, बेहतरीन प्रस्तुति, बहुत-बहुत बधाई आदरणीया
ReplyDeleteआह.. अति सुंदर आध्यात्मिक काव्य नाटिका... क्या कहने... अद्भुत अद्भुत अद्भुत...
ReplyDeleteवाह !सखी आँचल ,अद्भुत!!आध्यात्मिकता से सरोबार ..नमन तुम्हारी लेखनी को 🙏
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
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ReplyDeleteशब्दों में मधुरता और विद्वता की झलक है । साथ ही एक गंभीर विषय पर संवाद भी है। आपकी साहित्य साधना पर ब्लॉग जगत को गर्व होना चाहिए।
सच में मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था।जब उन्होने कहा कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वंदी हो गया है।
आपको मेरी बहुत सारी शुभकामनाएँ आँचल जी।
जिस गुण की व्याख्या शब्दों के रूप में ना कि जा सके...
ReplyDeleteउस पवित्र कला के द्वारा ,अल्पकाल के लिए ही सही मन को परब्रह्म से मिलाने के लिए आपका धन्यवाद।
अति सुंदर। मनमोहक वर्णन है।एक एकांकी परंतु अनेक संदेश।
ReplyDeleteवाह!!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब काव्य एकांकी...
अद्भुत एवं अविस्मरणीय
बहुत बहुत बधाई आँचल जी शानदार सृजन हेतु...।
वाह ...वाह...आँचल अद्भुत रचना बहुत बहुत बधाई हो
ReplyDeleteलाज़बाब रचना के लिए ।
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 27 मई 2020 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-३ हेतु नामित की गयी है। )
ReplyDelete'बुधवार' 27 मई 2020 को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/05/blog-post_27.html
https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
लाजवाब सृजन।
ReplyDeleteवाह! अप्रतीम रचना।बहुत ही सुंदर लेखन।सराहनीय।
ReplyDeleteअद्वितीय सृजन !
ReplyDelete