Tuesday, 22 December 2020

बिन प्रयास न होगा अब प्रभात


ध-धू करके जल रही आग,
सुख-स्वप्न हुए जन के सब खाक,
उठ रहा घोर चहुँ ओर चीत्कार,
सुनता न कोई यह दारुण पुकार,

घनघोर घिरा है जो अंधियार 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

कर मर्यादाएँ सब छार-छार 
सौ झूठ पर जो ठनी रार,
हुआ सत्य पर फिर प्रहार
और सरदार हुए सारे मक्कार,

तब लगा रही भारती गुहार 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

जो संकट में राष्ट्र को जान के,
सो रहे हैं चादर तान के,
कोई डालो निद्रा में व्यवधान,
और जागरण का करो शंखनाद,

हो जाओ अब रण को तैयार,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

हे रणभूमि में मौन खड़े 
कविवर क्यों रण से विमुख हुए?
जब लूटे दिनकर को व्यभिचार 
निकालो तुम भी तरकश से बाण,

और जला लो क्रांति की मशाल 
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

हो एकमत एक प्राण बनो,
अधिकारों पर अपने अधिकार करो,
संक्रांत का तत्क्षण दान करो,
हो स्वयं दीप्त प्रकाश करो,

तब होगा तम का पूर्ण विनाश,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात,
बिन प्रयास न होगा अब प्रभात।

#आँचल 

7 comments:

  1. बहुत अच्छी और सटीक बात कही है आँचल जी आपने - 'बिन प्रयास न होगा अब प्रभात' । यही वह सत्य है जो हम सभी को आत्मसात् करना है । अभिनंदन आपका इस सराहनीय सृजन के लिए ।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २५ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. कर मर्यादाएँ सब छार-छार
    सौ झूठ पर जो ठनी रार,
    हुआ सत्य पर फिर प्रहार
    और सरदार हुए सारे मक्कार,।
    प्रिय आँचल, रचना में ओज निशब्द कर रहा है। कवि जब देश काल पर चिंतन करता है तो उसकी कलम सार्थक होती है। इतनी प्रखर अभिव्यक्ति के लिए यही कहूँगी------ शाबास आँचल। खूब लिखो खूब आगे बढ़ो। हार्दिक स्नेह और शुभकामनाएं 🌹❤❤🌹

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  4. आ Anchal Pandey जी, आपने ओज और भाव को समाहित कर बहुत सुंदर रचना प्रस्तुत की है।
    कोई डालो निद्रा में व्यवधान,
    और जागरण का करो शंखनाद
    छंद के इस भाग में
    दूसरी पंक्ति को इसतरह लिखा जाए तो छंद की कसावट बद्व सकती है। " जागरण में खोजो समाधान" या इसी तरह की कोई और पंक्ति। ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं। अन्यथा नहीं लेंगी। सादार!--ब्रजेंद्रनाथ

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  5. वाह बहुत सुंदर रचना

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