कोरे पृष्ठों पर अंकित होती
प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,
छंद-छंद कूके कोकिल और
छम-छम नाचे सुंदर बाला।
वह युग कब का बीत चुका है,
यह कविता की बंजर शाला।
यह कविता की बंजर शाला।
उतर रही है हिम शिखरों से
शुभ्र-ज्योत्सना कलकल सरिता,
डग-डग भू-जन पोषित हैं
चखकर ज्ञान-सुधा का प्याला।
वह युग कब का बीत चुका है
सुधा-पुंज अब उगले हाला।
यह कविता की बंजर शाला।
काट रही घनघोर तिमिर को
दो-धारी तलवार-सी तूलिका,
हो भानुसुता-सी उतर रही है
प्राची के उर में रश्मि-माला।
वह युग कब का बीत चुका है,
टूट गई अब रश्मि-माला।
यह कविता की बंजर शाला।
कोरे पृष्ठों पर अंकित होती
प्रेम-सुमन-सी अक्षरमाला,
वह युग कब का.......
यह कविता की बंजर शाला।
#आँचल
बहुत ही सुंदर रचना । अपने मर्म तक पहुंचती हुई।
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 9 नवंबर 2022 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
बेहद सुंदर सृजन
ReplyDeleteजो स्वर्णिम युग बीत चुका है, उसे वापस लाने का दायित्व तुम युवाओं पर ही तो है.
ReplyDeleteप्रतिभाशाली कवि-कवयित्रियां तो अब भी हैं एवं सतत सृजन भी कर रहे हैं किन्तु यह शाला बंजर इसलिए है कि उनकी प्रतिभा वास्तविक संवेदनाओं से रहित है। कविता चाहे कितनी भी उत्तम हो, यदि वह निरूद्देश्य है तो उस प्रतिभा की मानिंद ही है जो समाजोपयोगी न हो।
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