Wednesday, 28 September 2022

रात बैठी दीये मैं जलाती रही

 (यहाँ 'मैं' अर्थात लेखनी)


रात बैठी दीये मैं जलाती रही,

इस अमावस से रार निभाती रही,

बुझ चुकीं न्याय की जब मशालें सभी, 

एक जुगनू से आस लगाती रही।


रात बैठी.........


चढ़ चुके थे हिंडोले विषय जब सभी,

सज चुके मानवी जब खिलौने सभी,

मेला झूठ का ठग ने लिया जब सजा,

मैं भी सत्य का ढोल बजाने लगी।


रात बैठी........


दामिनी नैन अंजन लगाने लगी,

रागिनी राग भैरव गाने लगी,

यामिनी से गले लग खिली जब कली,

मैं भी दिनकर को ढाँढ़स बँधाने लगी।


रात बैठी........


आँख से बहते पानी से छलने लगे,

लोग अंतिम कहानी पे हँसने लगे,

जब हिमालय भी थककर बिखरने लगा,

मैं भी पत्थर-सी सरिता बहाने लगी।


रात बैठी........


#आँचल 

3 comments:

  1. कलम तो नई तहरीर लिखती है । पीछे पीछे नहीं आगे चलती है ।

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  2. वाह आंचल ! तुम्हारी इस सुन्दर कविता को पढ़ कर हमारे जैसे बुज़ुर्गों को कवि प्रदीप के शब्द दोहराने ही होंगे -
    'तुम ही भविष्य हो, मेरे भारत विशाल के --'

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