जब समाज में मूल्यों का पतन हो जता है,मर्यादा के बंधन टूट जाते हैं ,सत्य का सूर्य निस्तेज हो जाता है,चारों ओर अँधेरे का साम्राज्य स्थापित हो जता है और धर्म अधर्म के सागर में बस डूबने को होता है तब सदा धर्म के पक्ष में खड़ी होने वाली लेखनी इस काल खंड के नायक को ढूँढ़ते हुए सभी धर्मात्माओ एवं वीरों को ललकारती है और पूछती है कि " है अब भी कोई वीरवान? " जो इस अंधकार का समूल नाश कर भटके साधकों को उचित दिशा देते हुए मनुष्य को उनका कर्तव्य स्मरण करा सके। बस इसी प्रयास में लेखनी जो कहती है वो अब इन पंक्तियों में पढ़िएगा 🙏
मनुष्य के जीवन में परीक्षा का दौर तो अनवरत चलता ही रहता है। अपने सद्गुणों एवं सदविचारों के आधार पर ही मनुष्य इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होता है।इस कारण इन परीक्षाओं का महत्व भी अधिक है किंतु विद्यार्थी जीवन में नियमित रूप से उनकी योग्यता का आकलन करने हेतु ली जाने वाली परीक्षाएँ भी कम महत्वपूर्ण नही होती हैं। अब इन परीक्षाओं की महत्ता का अनुमान आप इस आधार पर लगा लीजिए कि इसमें उत्तीर्ण होने हेतु विद्यार्थी एड़ी-चोटी का जोर लगाने के साथ-साथ नकल करने से भी नही चूकते।
परीक्षा केंद्र में बैठना और तीन घंटे एकाग्रचित्त होकर एक ही विषय पर आधारित प्रश्नों के उत्तर का स्मरण,चिंतन करते हुए अपनी लेखनी को उत्तर-पुस्तिका पर तीव्र गति से घसीटना किसी तपस्या से कम नही होता। इस तपस्या के फलस्वरूप घोषित होने वाले परिणामों की प्रतीक्षा भी किसी वियोगिनी के द्वारा अपने प्रवासी प्रियतम की बाँट जोहने के समान ही प्रतीत होती है। अर्थात सभी विद्यार्थी हुए तपस्वी और परीक्षा केंद्र हुई तपस्थली जहाँ से निकलकर कुछ तपस्वी भविष्य में लोककल्याण हेतु अपना योगदान देंगे। इसी तपस्थली में अक्सर कुछ ऐसे तत्व भी दिखाई पड़ते हैं जो इसकी शांति,शुभता और गरिमा को खंडित करने हेतु उत्तरदायी होते हैं। मार्ग भटक चुके इन तत्वों की मंशा तपस्या अर्थात परीक्षा के शुभ फल को छल से प्राप्त करने की होती है।
इन छलिया तपस्वियों अर्थात परीक्षार्थियों को हम दो वर्गों में रखकर समझने का प्रयत्न करते हैं। वैसे तो इन तत्वों को छल की समस्त विद्याओं का ज्ञान होता है किंतु प्रथम श्रेणी के अंतर्गत आने वाले तत्वों में ' नौसिखिया ' होने के कारण आत्मविश्वास की जो कमी होती है उसके चलते ये दूसरों की मेहनत पर निर्भर होते हैं।अपने आसपास परिचित-अपरिचित व्यक्तियों से उत्तर जानने के हर संभव प्रयास ये कक्ष में मौजूद परीक्षक से बचते-बचाते करते हैं। कभी दूसरों की उत्तर पुस्तिका में झाँका-ताकी करना,कभी उन्हीं से प्रश्नों के उत्तर जानने का प्रयत्न करना और कभी निर्लज्ज की भाँति दूसरों की उत्तर-पुस्तिका को माँग कर अक्षर-अक्षर छाप लेना। इन छलीय तत्वों को अपने विवेक का सदुपयोग करना नही आता। ये इनकी विनम्रता का ही परिचय है कि ये लोग ये मानकर चलते हैं कि इन्हें कुछ भी नही आता है और इनके इर्द-गिर्द बैठे परीक्षार्थियों को लगभग सबकुछ आता है इसी कारण दूसरों पर निर्भर रहकर ये लोग औरों को स्वयं पर गर्व करने का अवसर प्रदान करते हैं। साथ ही इनकी चपलता की भी जितनी सराहना की जाए कम है। नकल कराने जैसे निंदनीय कृत्य को बड़ी सहजता ये लोग ' सहायता ' का नाम देकर अन्य तपस्वियों को भी इस छल अथवा दुःसाहस हेतु प्रेरित करते हैं और विवेकहीन लोग इनके भ्रमजाल में आ भी जाते हैं। सहायता के नाम पर कैसा अपराध करने जा रहे हैं इसका आभास तो शायद ही किसी होता हो।
इन लोगों पर काल देवता की शायद अनायास ही कृपा होती है तभी तो तीन घंटे के अंतराल में जहाँ कुछ परीक्षार्थियों के पास श्वास लेने की भी फ़ुर्सत नही होती इन लोगों के पास फ़ुर्सत की तमाम घड़ियाँ होती हैं। उन्हीं घड़ियों का लाभ उठाकर इन तत्वों द्वारा सहायता के लेन-देन का कार्य निर्विघ्न संपन्न होता है।
प्रथम श्रेणी से बिलकुल विपरीत हैं द्वितीय श्रेणी के ये छलिया तपस्वी। ये लोग पूर्णतः आत्मनिर्भर होते हैं और छलपूर्वक परीक्षा में उत्तीर्ण होने हेतु अपनी समस्त छल-विद्याओं का सुंदर प्रदर्शन करते हैं। इनकी महत्वकांक्षा चरम पर होती है। प्रथम श्रेणी की भाँति इनके पास काल देवता या किसी अन्य दैवीय शक्ति की कृपादृष्टि तो नही होती किंतु ये अपनी समस्त छल-विद्याओं में इतने पारंगत होते हैं कि बड़े से बड़े नेता भी इनके आगे पानी भरें। परीक्षाकेंद्र में मौजूद परीक्षक की आँखों में धूल झोंकना तो इनके लिए बच्चों का खेल है। वो अलग बात की इन्हें ज्ञात नही कि ये लोग स्वयं की आँखों में धूल झोंककर अंधकूप की ओर बढ़े जा रहे हैं।
इन छलीय तत्वों अथवा तपस्वियों के ईर्द-गिर्द किसी पुस्तक,पर्ची,इलेक्ट्रोनिक उपकरण या अन्य नकल करने के संसाधनों की मौजूदगी ठीक उसी प्रकार होती है जिस प्रकार स्वयं आपके भीतर एवं आपके ईर्द-गिर्द ईश्वर की अप्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी। इन परीक्षार्थियों को आप कभी भी रंगे हाथों नही पकड़ सकते। वो जो कभी-कभार पकड़े गए बिचारे भूले-भटके इस श्रेणी में आ गए होंगे अन्यथा द्वितीय श्रेणी के इन तपस्वियों को तो बाल्यावस्था से ही इन छल-विद्याओं का अभ्यास होता है। इतने अभ्यस्त होने के कारण इनकी गणना सदैव सभ्य,सुसंस्कृत एवं मेहनतकश व्यक्तियों में होती है। इनका निर्भीक स्वभाव वास्तव में सराहनीय है।
अब विधि का विधान या कलयुग का प्रभाव कहकर हम इस विडंबना को स्वीकार कर सकते हैं कि परीक्षा में नकल करने जैसा निंदित कर्म आज विद्यार्थियों के लिए छींकने -खाँसने, रोने-गाने जैसी सामान्य बात हो गई है। कुछ विद्वानों द्वारा इसे ' कला ' के रूप में स्वीकार किया गया है। कला के रूप में नकल करने के इस निंदित कर्म को इतना यश प्राप्त हुआ है कि इस विधा को सीखने हेतु लोग अब हर संभव प्रयास करने लगे हैं। इसकी कीर्ति के प्रभाव स्वरूप बालकों के प्रथम गुरु होने के नाते माता-पिता स्वयं अपनी संतानों को इस कला की शिक्षा प्रदान करने लग गए हैं। अब इस कला की यशगाथा सुनने के पश्चात आपको यह जानकर तनिक भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि स्वयं चाणक्य के समान कर्मनिष्ठ गुरुओं एवं परीक्षकों ने भी अपने शिष्यों पर कृपादृष्टि रखते हुए उनपर से अपनी दृष्टि हटाकर उन्हें छल-विद्या का सदुपयोग हेतु स्वतंत्र छोड़ दिया है।
नकल करने की इस प्रथा को जिस प्रकार विद्यार्थियों द्वारा निभाया जा रहा है उससे निश्चित तौर पर समाज आगे तो बढ़ रहा है किंतु पतन के मार्ग पर। इस प्रकार के विषय देखने-सुनने में जितने छोटे अथवा साधारण प्रतीत होते हैं इनपर यदि किसी प्रकार का चिंतन न किया जाए, कोई अंकुश न लगाया जाए तो समाज को रोगी बनाने हेतु पर्याप्त हैं। इस प्रकार के सामान्य प्रतीत होने वाले छोटे-छोटे विषयों के आधार पर ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण संभव होता है तथा एक चरित्रवान व्यक्ति ही स्वस्थ समाज के निर्माण का सामर्थ्य रखता है। अर्थात यदि हम एक स्वस्थ,सुंदर समाज की कल्पना कर रहे हैं तो बिना एक क्षण व्यर्थ किए हमारे लिए इन सामान्य प्रतीत होने वाले ' नकल करने ' जैसे निंदनीय कर्मों पर चिंतन-मनन कर इन पर यथाशीघ्र अंकुश लगाना अत्यंत आवश्यक हो जाता है।