Friday, 29 May 2020

लघुकथा - सियासतगंज बस हादसा


हफ़्तों से पैदल ही मीलों का सफ़र तय कर रहे प्रवासी मज़दूर अपने लिए भेजी गई स्पेशल बस की सूचना मिलते ही बस की ओर तेज़ी से बढ़ते हैं।

" भला हो भैया सरकार का जो हम मज़दूरों के लिए कम से कम बस की सुविधा तो करवाई वरना इस भीषण गर्मी में चलते-चलते हमारे पैर तो अब जवाब दे चुके थे।अरे घर क्या, इस भुखमरी और कोरोना नामक महामारी के बीच हम तो सीधा परमधाम पहुँचते। "
भोलाराम बस में चढ़ते हुए बोला।

अपने पैरों में पड़े छालों को देखता रामगोपाल यह सुनकर कुछ चिढ़ता हुआ बोला -
" हाँ-हाँ जो प्राणों सहित घर पहुँच जाओ तो सरकार और भगवान दोनों के गुण गा लेना। अब बैठो जल्दी,बस चलने वाली है।"

भोलाराम ज़ोर से हँसते हुए बोला -
" अरे भैया तुम तो जब देखो तब कभी ऊपर वाली सरकार तो कभी नीचे वाली सरकार को कठघरे में खड़ा कर देते हो। अरे तुमको तो वकील होना था,मज़दूर कैसे बन गए?"
रामगोपाल कुप्पा जैसा मुँह फुलाकर खिड़की के बाहर देखता है और बस चल पड़ती है। भोलाराम की गठरी से कुछ आवाज़ आती है। रामगोपाल पूछता है - 
" यह आवाज़ कैसी आ रही तुम्हारी गठरी से? "
" अरे यह आवाज़! यह तो झुनझुने की है। हमारी बिटिया तीन महीने की हो गई और हम अब तक उसे देखने भी न जा पाए। उसके आने की ख़बर मिलने पर लिए थे। "
भोलाराम अपनी आँखों में अपनी बिटिया के लिए हज़ार सपने लिए गठरी से झुनझुना निकालते हुए बोलता है कि तभी एक ज़ोर की आवाज़ आती है।

" सियासतगंज से इस वक़्त की बड़ी ख़बर। प्रवासी मज़दूरों को ले जा रही स्पेशल बस की हुई ट्रक से टक्कर। ड्राइवर समेत 12 मज़दूरों की दर्दनाक मौत और 8 घायल। "
कैमरामैन अजीत के साथ संवाददाता करिश्मा बोलती है।

घायल रामगोपाल नम आँखों से भोलाराम की ओर देखते हुए उसके हाथों से झुनझुना ले लेता है और वॉर्ड बॉय भोलाराम के शव को अन्य मृतकों के साथ रख देते हैं।

#आँचल 

Thursday, 21 May 2020

प्रथम एकांकी - मीरा और जीव गोस्वामी




(पर्दा उठता है )
सूत्रधार -   एक जोगन राजस्थानी 
              और बृज की है ये कहानी
               कृष्णा के गुण गाती आई  
          मीरा प्रेम दीवानी।
              बृज ठहरी रसिकों की भूमि,
            भक्तों और संतों की भूमि,
            यहीं-कहीं  जाना मीरा ने 
           ठहरे जीव गोस्वामी।

मीरा -   ओह! सखी बड़ भाग हमारे 
          सुअवसर जो आज पधारे 
          भक्त शिरोमणि गोस्वामी जी के 
        दर्शन से चलो लाभ उठा लें।

सूत्रधार -   मन में श्याम और कर में वीणा,
             संग सखी ललिता आश्रम चली मीरा।
          सुध-बुध जो दे बैठी श्याम को,
        बिना कुछ जाने चली भीतर को।
      तभी एक सेवक ने टोका,
     था जाने कौनसी ऐंठ में बैठा?

सेवक -   ठहरो! ठहरो! ठहरो हे नारी!
          बोलो कौन काज पधारी?
          यूँ भीतर को बढ़ी जाती हो,
         बिन जाने-बूझे क्या आती हो?

ललिता सखी -   आना-जाना तो सब हरि जाने,
                     हम उसके चाकर-चाकरी ही जाने।
                  पद -पंकज आगे जो करें मन अर्पण,
              हम आए उन गोस्वामी जी के दर्शन पाने।

मीरा -   है सुना गोस्वामी जी यहीं ठहरे,
         हम आए हैं उनकी संगत पाने।
       भैया अब तो राह ना रोको,
         हम आए हैं गिरधर की राह को जाने।

सेवक -   कोई दूजी राह पकड़ वैरागन 
         यह राह नहीं तुम्हारी।
         यहाँ वर्जित है प्रवेश नारी का,
        क्या ये बात न तूने जानी?

सूत्रधार -   आह! ये क्या सुना?
              क्या ठीक सुना मैंने?
            वर्जित प्रवेश नारी का 
           बृज के किस कोने में?

          स्तब्ध खड़ी ललिता,
          देखो स्तब्ध है बृज की माटी भी,
          पर मंद-मंद मुसकाए मीरा 
          यही तो पहचान है ज्ञानी की।

मीरा -   नारी का प्रवेश यहाँ वर्जित!
           भटक गये हम राह कदाचित्।
           भैया धन्य उपकार तुम्हारा,
           जो घोर अनर्थ से हमे बचाया,
           गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे 
          इस भेद से तुमने पर्दा उठाया।

सूत्रधार -   कौन से भेद से पर्दा उठाया?
               सेवक को कुछ समझ ना आया,
            माथा उसका चकराया।

सेवक -   गोस्वामी जी अब तक पुरुष ही ठहरे!
            हैं कैसे अनर्गल वचन तुम्हारे?
            बोली हो क्या बिना विचारे?

मीरा -   मैं अज्ञानी भला क्या बोलूँगी?
            संतों की सुनी ही दोहराऊँगी।

सूत्रधार -   इधर उलझाकर सेवक को वचनों में 
           मीरा तो सखी संग लौट चलीं,
         और उधर आश्रम के भीतर 
       बात आग-सी फैल गई।
       जीव गोस्वामी भी क्या बचते 
       उनके कानों तक भी पहुँच गई ,
     बात पुरुष होने वाली 
    अचरज में सबको डाल गई।

जीव गोस्वामी -   कैसी उद्दंड नारी है यह!
                      या कोई परमज्ञानी है?
                      जोगन का चोला ओढ़े 
                      यह कौन श्याम दीवानी है?

सूत्रधार -   अब जिज्ञासा की सुनो कहानी,
             जैसे प्यासा कोई ढूँढ़े पानी,
             भूलकर अपने नियम सब कट्टर 
            मीरा को ढूँढ रहे गोस्वामी।
           गली-गली संग सेवक के भटके,
           जो सुने पद सुंदर पांव भी अटके।

(मीरा पद गा रहीं  )


मीरा -   सूली ऊपर सेज हमारी, 
        सोवण किस बिध होय।
            गगन मंडल पर सेज पिया की,         मिलणा किस बिध  होय॥
 दरद की मारी बन-बन डोलूं 
बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी 
जद बैद सांवरिया होय॥

जीव गोस्वामी -   आहा! कितना सुंदर,कितना अनुपम,
                   सुनकर जैसे कट गये सब बंधन।
                    है यह कौन विरहिणी जो श्याम मगन?
                     पीड़ा से जिसकी लगी लगन !

सेवक -   अनर्गल से थे जिसके वचन 
           यही है प्रभु वो वैरागन ।

सूत्रधार -   जहाँ गुंजित हो प्रश्नों का शोर,
              वहाँ कैसे ना हो ज्ञान की भोर?
           थामकर जिज्ञासा की डोर,
             गोस्वामी जी बढ़े मीरा की ओर।

जीव गोस्वामी -   श्याम नाम को धर अधरों पर,
                       गीत विरह-प्रेम का गाती हो।
                       हे जोगन क्या नाम तुम्हारा?
                      तुम कौन देश से आती हो?

मीरा -   हम देश से उसके आए हैं,
        देश उसी के जाना है।
         झूठे हैं सब नाम जगत्‌ के,
        सच तो बस मेरा कान्हा है।
         जो पूछें आप इस तन की,भ्रम की,
    मीरा नाम अभागा है।
        राजपूताना कुल-मर्यादा, सबको मैंने त्यागा है,
       तोड़कर बंधन मिथ्या जग से 
       पति गिरधर को माना है।

जीव गोस्वामी -   तज भ्रम,ब्रह्म की ओर चली,
                        जान पड़ती हो तुम विदुषी कोई,
                      क्या इतना भी ज्ञान नही तुमको?
                      नारी से मिलता नही ब्रह्मचारी कोई।
                   क्या अनर्गल थे वे वचन तुम्हारे,
                  या छिपा था उसमें अर्थ भी कोई?

सूत्रधार -   करबद्ध खड़ी मीरा मुसकाए,
             होकर विनम्र गूढ़ वचन सुनाए।

मीरा -   हम तो ठहरे मूढ़ी, अज्ञानी
          अर्थ-अनर्थ को क्या जानें?
           बृज में जो सुनी संतों की वाणी 
         द्वारे आश्रम के वही दोहरा आए।
         हम तो समझे थे गोस्वामी जी 
          इस जग में सब प्रकृति स्वरूप नारी हैं
          और पुरुष है वो एकल परमात्मा,
        पर भेद आज यह जान गए 
        है प्रतिद्वंदी उसका भी कोई महात्मा।

सूत्रधार -   आंखें गोस्वामी जी की भीग गयीं !
            कदाचित् भ्रम की धूल सब धुल गई ।

जीव गोस्वामी -   धन्य! धन्य! हो धन्य तुम मीरा,
                       हो भक्ति - ज्ञान की पावन सरिता।
           ब्र्म्ह     क्षमा!क्षमा!क्षमा करो गिरधर
                   पड़ गयी अब मेरे अहं को ठोकर ,
                    'मैं ' में ही मैं तो भटक रहा था,
                 भक्ति की राह में अटक गया था।
                 चला था तुमको पुरूषार्थ से पाने,
                 समर्पित होने से चूक गया था ।

मीरा -   ब्रह्मचर्य नही कोई भेद सिखाता ,
        ये तो बस ब्रह्म का ज्ञान कराता,
       मन के विकार से मुक्ति दिलाता,
      प्रभु के ध्यान में  मन को रमाता,
    आत्मा से आत्मा का भेद यह कैसा?
    ब्रह्मचर्य  तो है इस तन की तपस्या ।

जीव गोस्वामी -   आहा ! सुंदर! अति सुंदर।              करी व्याख्या ।
                   यह तन तो बस माया की काया
                  आत्मा में है परब्रम्ह की छाया।

सूत्रधार -   आहा ! कितना अद्भुत संदेश है यह।
              करो पुरूषार्थ तो निश्चित जग जीतोगे ,
             होकर समर्पित जगतपति  जीतोगे ।
             जब होता है संतो का संगम ,
         तभी होता है ज्ञान का मंथन।
          अब गोस्वामी जी मीरा से करें निवेदन।

जीव गोस्वामी -   हे श्याम विरहिणी, हे श्याम मगन,
                    स्वीकार करो मेरा निवेदन।
                  अपने कृष्णमय सुंदर पद गाकर
                   आश्रम मेरा कर दो पावन।

सूत्रधार -   मीरा, ललिता संग गोस्वामी जी सेवक
           बढने लगे आश्रम की ओर,
          मीरा के सुंदर भजनों से
            ब्रज मंडल हुआ भक्तिविभोर ।

( पर्दा गिरता है )

#आँचल

Monday, 4 May 2020

मयूरा के भाग वंशी की तान!


वेणु की सुन कर पुकार,
गोपिन सब सुध-बुध गयीं हार,
गड़ - गड़ मेघों की मिली ताल,
चित मयूरा पर हरि गये हार,
हाय! गोपिन के मन में डाह,
मयूरा के भाग वंशी की तान!
छलिया के छल को गयीं जान,
संग राधा गोपिन सब रचे स्वाँग,
छम - छम मयूरा संग हुई मयूर,
नाचे राधा? नाचे मयूर?
अचरज में हाय! पड़ गये श्याम,
मोहे राधा जब आठों याम!
तब माया-मयूर ने लिया जान 
कोटिशः वंदन,कोटिशः प्रणाम,
आगे जिनके झुकते हैं श्याम,
राधा से ही भक्ति और ज्ञान।
#आँचल 

Friday, 1 May 2020

क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?


तप रहा वह धूप से या नीतियों की मार से?
लड़ रहा है भाग्य से या पूँजीपतियों के प्रहार से?
वह चला रहा है छेनी क्या रोटी के इंतज़ाम को?
या तोड़ता है अपनी आँखों में पल रहे सपने?
जोड़-जोड़ के ईंटों को जो ऊँची इमारतें बनाता है,
खुले आसमान के नीचे क्यों अपनी रातें बिताता है?
झेलकर मार मौसम की जो अन्न उगाता है,
वह वीर माटी का क्यों फाँसी पर झूल जाता है?
भाषणों में जिसके नाम पर कोई वोट पाता है,
क्यों जीत के बाद उसको भूल जाता है?
ऋण है श्रमिक का देश पर जो देश बढ़ता है,
तो क्यों भला मज़दूर यहाँ मजबूर दिखता है?

#आँचल