Saturday, 5 May 2018

बूढ़ी आँखों का इंतजार

वो धूल की चादर ओढे जंभाई लेता पायदान
एक सीधी एक उलटी पड़ी पहरा देती चप्पल की जोड़ी
और चपड़ चपड़ बतियाते पत्तों की ढेरी
लगता जैसे खा जाए कान
खड़खड़ाती इन खिड़कियों संग खेलती आती जाती हवा
धूल सने इन कमरों को छुपकर देखते मकड़ी के जाल
और फड़फड़ाते ये बिखरे अखबार नाचें जैसे सावन के वार
मुरझाई सुखी इस तुलसी पर मातम मनाता ये सूना आँगन
और धूमिल टँगी तस्वीरों में खो गया जाने किसका बचपन
ये जूठा पड़ा चाय का कप और ऍल्बम में झाँकते ऐनक के संग
चु चु करते झूले पर लेटा इंतजार में कोई बूढ़ा तन
जाने किसके आने की आस में तड़प रहा था उसका मन
शायद बेटा था उसका जो दे गया बूढ़े को अकेलापन
और कह गया बाप से झूठे वचन
बोला कुछ दिन का बस इंतजार फ़िर तुझको भी लेकर जाऊँगा संग सारे त्योहार मनाऊँगा
फ़िर बीते साल और हर त्योहार
और बरकरार बूढ़ी आँखों का इंतजार
पर अकेलेपन ने गहरी एक चाल चली
बूढ़े की घुट कर जान गयी
एक चिट्ठी कप के पास मिली
मैं हारा करके बेटा इंतजार
अब चढ़ा दे आकर मुझ पर हार
अब भी तन को तेरा इंतजार
                                          #आँचल

2 comments:

  1. मर्मस्पर्शी रचना।
    बुड्ढी आंखों का इंतजार एक छलावा एक धोखा आखिर हार गया।
    अप्रतिम भाव।

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  2. लाजवाब शब्द चयन और खूबसूरत एहसास। बहुत अच्छा लिखा आप ने। हृदयस्पर्शी

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