Wednesday, 29 October 2025

सुनो दुष्यंत

 

सुनो दुष्यंत!

मैंने तो बड़ी ख़ामोशी से 

तुम्हारी ग़ज़लों में धधकती

क्रांति की आग को बस 

एक बार चखना चाहा था 

पर तुमने तो इन्हें 

शांत रहना सिखाया ही नहीं!

और तुम्हारे ये शब्द 

मेरे भीतर प्रवेश करते ही 

कोसने लगे

कायरता के क्षणों में चुने

गए मेरे मौन को 

और मैं हतप्रभ-सी 

जब इसे शांत न कर सकी 

तो झुलस गई पूरी की पूरी 

अपने खोखले मौन के साथ।

#आँचल

6 comments:

  1. Replies
    1. धन्यवाद सर 🙏

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  2. धन्यवाद सर

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  3. इस तरह झुलसने के बाद ही सच्ची क्रांति घटती है

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