आज फिर रात हो गई
'दिन' को ढोते-ढोते!
आहिस्ता कंधों से उतार
उसे पटक दिया मैंने भू पर
फिर माथे से ढुलकते
तारों को समेटा आँचल में
गहरी श्वास भरी
और देखा नज़र उठाकर
आकाश की ओर
कि माँग लूँ उधार कुछ तारे
और बाँध लूँ
अपने आँचल में कसकर
इस आस में कि कल
जब बुझ जाएँगे
आशा के सब दीपक,
क्रान्ति की सब मशालें
और शहीद हो जाएँगे
सारे जुगनू अँधेरे से लड़ते-लड़ते
तब शायद इन्हीं तारों में से
फूट पड़ें नए भोर की किरणें
पर अफ़सोस कि आज
आकाश का आँचल भी सूना हो गया
'अँधेरे के साम्राज्य में।'
#आँचल
बहुत सुंदर आशा को जगाती
ReplyDeleteसुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteपर अफ़सोस कि आज
ReplyDeleteआकाश का आँचल भी सूना हो गया
'अँधेरे के साम्राज्य में।'
भावपूर्ण अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर
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