Thursday, 5 June 2025

हर रोज़ मेरे भीतर

 



हर रोज़ मेरे भीतर

एक कविता जन्म लेती है

और हर रोज़ अपने भीतर 

मैं तोड़ती हूँ एक कविता का दम 

नहीं,और कुछ नहीं बस 

कुछ वक़्त का है सितम 

कुछ रंग घुले हैं कम 

और कुछ ताज़ा ही रह गए

बीते ज़ख़्म।

#आँचल 

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