Saturday, 30 November 2024

पानी

ढूँढ़ रही हूँ पानी को पानी में,
ढूँढ़ रही हूँ उसका अपना अक्स,
अपनी छवि 
जाने कैसी होगी उसकी अपनी हँसी?
जो सबके रंग में रंग जाती है 
ख़ुद उसका रंग कैसा होगा?
कैसा होगा उसका अपना गीत?
जीवन उसका कैसा होगा?
मैं पानी में पानी की 
जीवन-गाथा ढूँढ़ रही हूँ?
ढूँढ़ रही हूँ पानी में पानी का 
अदृश्य निज-स्वरूप 
जहाँ वह स्वयं से मिलती हो,
ख़ुद ही अपने रंग में रंगती हो,
अपनी ही धुन गाती हो,
मंद-मंद मुसकाती हो।
जब हार गई में ढूँढ़-ढूँढ़ कर 
पर पानी का ऐसा रूप न पाया 
तब आँखों से बहते निर्मल नीर ने 
मुझको पानी का भेद बताया
कि तरल है पानी ऐसे जैसे 
माँ की ममता होती है 
जो भूलकर अपना अहं 
सदा ख़ातिर सबके जीती है,
बहती है बरखा सरिता बन तो 
धरा हरित करती है
और बहे जो आँसू बनकर तो 
अंतर-भाव शुद्ध करती है।
यह पानी की प्रीत रीत 
जो प्रीति बनकर जीती है।

#आँचल

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