Thursday, 19 January 2023

जग रही हूँ मैं अकेली या कहीं कोई और भी है?

 


जग रही हूँ मैं अकेली 

या कहीं कोई और भी है?

यामिनी से जूझते 

उस सुनहरे भोर का 

क्या कहीं कोई ठौर भी है?

है कहीं कोई हृदय 

व्याकुल जगत संताप से,

या सकल संसार पुलकित 

माया के मधुपाश में?

हास में,विलास में,

जागा तमस उल्लास में!

उन्माद में मनु ने स्वयं को 

झोंका समर के त्रास में!

ग्रास है सबकुछ समय का 

और मेरे हाथ मात्र प्रयास है।

लड़ रही हूँ मैं अकेली 

या साथ कोई विश्वास है?

द्वंद्व में उलझी हुई हूँ,

भूमि पे रण के खड़ी हूँ,

रिक्त है तरकश मेरा,

है सामने लश्कर खड़ा,

नातों के बेड़ी बाँधकर 

कर्तव्य पीछे खींचता,

साहस है मेरा छूटता,

सम्मान भी अब डोलता,

प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ 

झूठ के प्रहार का,

मैं हार कर भी लड़ रही हूँ!

क्या अंत है इस रात का?

सुन रहा है क्या कोई 

प्रभात ये चीत्कारता!

घुट-घुट बुझने लगा है 

दीप सत्य-विश्वास का।

जग रही हूँ मैं अकेली 

या कहीं कोई और भी है?

सहेजता वह दीप-ज्योत 

प्रहरी कहीं कोई और भी है?

प्रलय के आभास से,

घनघोर अंधकार से,

डर रही हूँ मैं अकेली 

या संघर्ष में कोई और भी है?


#आँचल 

2 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार 21 जनवरी 2023 को 'प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ झूठ के प्रहार का' (चर्चा अंक 4636) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  2. लाजवाब रचना …

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