Tuesday, 31 January 2023
बाल साहित्य की उपेक्षा क्यों?
हिंदी साहित्य में बाल साहित्य का सदा से अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पर अफ़सोस आज के इलेक्ट्रानिक युग में ये बाल मन तक पहुँच नही पा रहा और जिसके कई दूरगामी परिणाम अक्सर युवा पीढ़ी को भोगने पड़ते हैं। एक दौर था जब बाल साहित्य बच्चों में काफ़ी प्रचलित था। जातक कथाएँ हो,पंचतंत्र या चंपक हो या फ़िर चाचा चौधरी और ना जाने कितनी ही कहानी और कविता संग्रह जो बाल मन को रंजित करते हुए उनकी सृजनात्मक क्षमता को बढ़ाते थे और कल्पना लोक का विस्तार करते थे।पर अब डिजिटल मीडिया से जुड़ने के कारण बच्चों को सब पका पकाया मिलता है जो बहुत हद तक बच्चों की कल्पना शक्ति को क्षीण कर रहा है।बहुत से विदेशी कार्टून सीरीज जैसे डोरेमॉन,शिनचैन, एवेंजर्स और ऑनलाइन लाइन गेम्स का भी हमारे नन्हे पाठकों पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है जो ना केवल इन्हें साहित्य से अपितु हमारी संस्कृती और सभ्यता से भी कोसों दूर कर रहा है।
बाल साहित्य जहाँ एक ओर बच्चों में अध्ययन के प्रति रुची बढ़ाता है और भाषिक विकास भी करता है वही दूसरी ओर बच्चों के मन में मूल्यों को स्थापित करता है,नैतिक शिक्षा प्रदान करता है और उचित,अनुचित का भेद सिखाते हुए एक आदर्श चरित्र का निर्माण करता है। ये बच्चों को हमारी परंपराओं से जोड़ता है,उन्हें संस्कारित करता है और यही उन्हें संवेदनशील भी बनाता है किंतु यदि हम बचपन को बाल साहित्य से विलग करते हैं तो इसके दुष्परिणाम हमे अख़बारों में दिखाई देते हैं जो युवाव्स्था में अपराधों की बढ़ती संख्या की पुष्टि करता है।इसके साथ ही बाल साहित्य से अछूता युवा जब गंभीर साहित्य को पढ़ता है तो कई बार वो उसके मन को रंजित करने के स्थान पर उद्विग्न करता है जो कई विकार को जन्म देता है। इसका कारण मात्र यह है कि बाल साहित्य की कोमलता,सरलता में निहित ज्ञान की नीव उसके मन में रखी नही गई जो गंभीरता को धारण कर सके।
आज साहित्य की दुनिया में हम अगर बाल साहित्य को उपेक्षित देख रहे तो इसका एक बड़ा कारण बाल पाठकों की कमी भी है।अब हालात ये है कि जहाँ एक ओर बाज़ारों में बाल साहित्य के नाम पर सन्नाटा पसरा है तो वही युवा लेखकों में भी इसके प्रति कोई रुची दिखायी नही पड़ती। प्रायः वे इसकी कोमलता,सरलता और सहजता की माँग के कारण इसे हलके में लेते हैं और इसमें किसी प्रकार की शब्द शक्ति,रचना कौशल या अन्य सृजनात्मक क्षमता की अधिक आवश्यकता नही समझते। किंतु सत्य तो यह है कि सरल शब्दों का चयन करते हुए बाल मन को छूती,उन्हें रंजित करती शिक्षाप्रद रचना का सृजन बेहद चुनौतीपूर्ण है।
आज एकल परिवार के दौर में जब बच्चे नानी - दादी के उन किससे कहानियों से दूर हैं जो उनके कोमल और जिज्ञासु मन को संस्कारों से पोषित करती थी तब बाल साहित्य की महत्ता बच्चों के जीवन में और बढ़ जाती है। आज जब नौकरीपेशा माता -पिता भी अपने बच्चों पर उचित ध्यान नही दे पाते और परिणाम स्वरूप बच्चे अकेले ही टी. वी. और मोबाइल पर कुछ भी देख सीख रहे होते हैं तब अभिभावकों और शिक्षकों की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि वो बच्चों को बाल साहित्य की ओर उन्न्मुख करें। इससे बच्चों को उचित दिशा तो मिलेगी ही साथ ही पौराणिक कथाओं और इतिहास में भी उनकी रुची बढ़ेगी और साथ ही प्रकृति की ओर इनका लगाव होगा और इसमें निहित सीख इन्हें भविष्य में आने वाले संघर्षों से लड़ने में सहायक होगी। इसके साथ ही बाल साहित्य स्वस्थ बच्चों के साथ एक स्वस्थ समाज का भी निर्माण करेगा।
-आँचल
दिनांक -23/10/2019
(अक्षय गौरव ई-पत्रिका - जुलाई -दिसम्बर२०१९ के बाल साहित्य खंड में प्रकाशित )
Thursday, 19 January 2023
जग रही हूँ मैं अकेली या कहीं कोई और भी है?
जग रही हूँ मैं अकेली
या कहीं कोई और भी है?
यामिनी से जूझते
उस सुनहरे भोर का
क्या कहीं कोई ठौर भी है?
है कहीं कोई हृदय
व्याकुल जगत संताप से,
या सकल संसार पुलकित
माया के मधुपाश में?
हास में,विलास में,
जागा तमस उल्लास में!
उन्माद में मनु ने स्वयं को
झोंका समर के त्रास में!
ग्रास है सबकुछ समय का
और मेरे हाथ मात्र प्रयास है।
लड़ रही हूँ मैं अकेली
या साथ कोई विश्वास है?
द्वंद्व में उलझी हुई हूँ,
भूमि पे रण के खड़ी हूँ,
रिक्त है तरकश मेरा,
है सामने लश्कर खड़ा,
नातों के बेड़ी बाँधकर
कर्तव्य पीछे खींचता,
साहस है मेरा छूटता,
सम्मान भी अब डोलता,
प्रतिकार फिर भी कर रही हूँ
झूठ के प्रहार का,
मैं हार कर भी लड़ रही हूँ!
क्या अंत है इस रात का?
सुन रहा है क्या कोई
प्रभात ये चीत्कारता!
घुट-घुट बुझने लगा है
दीप सत्य-विश्वास का।
जग रही हूँ मैं अकेली
या कहीं कोई और भी है?
सहेजता वह दीप-ज्योत
प्रहरी कहीं कोई और भी है?
प्रलय के आभास से,
घनघोर अंधकार से,
डर रही हूँ मैं अकेली
या संघर्ष में कोई और भी है?
#आँचल