Monday, 15 March 2021

कुछ लिखें ऐसा जो सवेरा करे

 


लफ़्ज होठों पे आकर थम से गए थे,

भाव मन में कहीं ठिठक से गए थे,

खुद को भी हम रोज़ भुलाने लगे थे,

ए कलम तुझसे यूँ जुदा जो हुए थे।


एक अरसे से तुमसे मिलीं जो नही,

सवेरा भी तबसे हुआ ही नही,

आओ मिलकर हम फिर से अंधेरा हरें,

कुछ लिखें ऐसा जो सवेरा करे।


पीर स्वयं की भुलाकर जहाँ की लिखें,

वासना को तजें, साधना हम करें,

मन स्याही से जब कागज़ को रंगे,

सृजन ऐसा हो जो मंगल करे।


कभी चुपके से गिरधर को पाती लिखें,

कभी बाबुल के आँगन की माटी लिखें,

जो लिखें पद तो गुरु-पद की अर्चना हो,

छंद-छंद में तिरंगे की वंदना हो।


आओ बीते पहर के नग़्मे लिखें,

कुछ भावी सहर के सपने लिखें,

क्रांति का ऐसा कोई मंत्र लिखें,

मृत संभावना को जीवंत लिखें।


तृण को सारा संसार लिखें,

रण को नव शृंगार लिखें,

साँसों के अंतिम फेरे में 

युग का नव आरंभ लिखें।


साँसों के अंतिम फेरे में 

युग का नव आरंभ लिखें।


#आँचल 

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर ! जागरूक युवा-पीढ़ी में ही मंगलकारी नव-युग का सूत्रपात करने की क्षमता है.

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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  2. वाह!आँचल ,बहुत खूबसूरत सृजन ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया दीदी जी। सादर प्रणाम 🙏

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  3. साँसों के अंतिम फेरे में, युग का नव आरंभ लिखें।
    बेहतरीन भावों को पिरोती सुंदर रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।।।।।

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