Friday, 2 August 2019

मैं हरी हो जाऊँ



बिन साज कान्हा धुन छेड़े 
बिन झांझर पग लेवे फेरे
मोहे अधर मुरलिया
सोहे मोर मुकुटिया
सूरतिया पर जाऊँ बलिहारी
प्रीत के सुख गीत पर
मयूरा संग रीझ कर
मैं श्याम रिझाऊँ
मैं श्याम रिझाऊँ
हास ठिठोली सखीयन की ना भाए
गुण गावत टोली हरी की लुभाए
छोड़ के सुख छैया
तोड़ रीत पैजनिया
जोगनिया चूनर रंग डाली
नाम प्रीत का जपकर
सम ज्योति सी जलकर
मैं अलख जगाऊँ
मैं अलख जगाऊँ
हरी प्रेम का गुड़ मन चाखे
रोम रोम रंजन हुआ लागे
लगी सागर हरी अँखीयाँ
मन लगाए डुबकियां
हर डुबकी अर्पण गुण दोष कर डाली
तब लोक लाज को तज कर
समर्पण की चोटी चढ़कर
मैं हरी हो जाऊँ
मैं हरी हो जाऊँ
#आँचल


4 comments:

  1. प्रेमाश्रयी भक्ति रस धारा से सराबोर सुंदर शब्द-लालित्य।
    बधाई और आभार।

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  2. प्रिय आँचल , भक्ति रस में आकंठ सराबोर मन की मुक्त भाव माला | जितनी सुंदर रचना उतना सुंदर रचना का मधुर वाचन | बहुत बहुत शुभकामनायें और प्यार आँचल | छोटी सी उम्र में तुम्हारे आध्यात्मिकता से भरे प्रयास बहुत गहरे है | बस यूँ लिखती रहो |सस्नेह

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति भक्ति रस से सराबोर भक्ति में डूबा आकंठ मन ।
    सरस मोहक ।

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  4. भक्ति रस से सराबोर

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