Saturday, 31 August 2019

मृत्यु तुम स्वयं अप्सरा हो

कोई यदि पूछे कि मृत्यु क्या है तो हम  कहेंगे जीवन का अंत है मृत्यु। जीवन सुंदर है तो मृत्यु भयंकर है,जीवन दयालु है तो मृत्यु क्रूर है। पर क्या वास्तव में जीवन जैसी सुंदर रचना के रचनाकार ऐसी  मन को व्यथित करने वाली रचना रच सकते हैं या ये केवल हमारा भ्रम है। चलिए आज दृष्टिकोण बदल कर देखते हैं कि सत्य में मृत्यु किसी कथा का अंत है या नव गाथा का आरंभ,क्रूर है या इतनी नम्र कि हमारे संघर्षों से द्रवित हो मुक्ति दे दे।
हम जानेंगे कि मृत्यु वो मोहिनी है जिसके आगे कोई योगी या निर्मोही भी मन हार जाए । वो सखी है जो हमारे दु:ख-सुख हर कर मात्र सुकून दे। वो माता है जिसकी गोद में आँख बंद करो तो समस्त चिंताओं  और थकान का अंत हो जाता है और जब आँख खुले तो एक नया जीवन स्वागत को खड़ा होता है।
अर्थात अगर हमारा तन दीपक है तो आत्मा दीपशिखा और मृत्यु वो सूत्रधार जो हमे एक अध्याय से दूसरे की ओर ले जाती है।
तात्पर्य यह है कि भेद ईश्वर की रचना में नहीं  हमारी दृष्टिकोण में है।और जो इसे जान लेता है फिर उसे मृत्यु का भय कैसा?
बस इसी दृष्टिकोण के साथ आज  मृत्यु के सुंदर स्वरूप के वर्णन का कुछ इस प्रकार प्रयास किया है -


हे कालसुता हे मुक्ति माता
हे परम सुंदरी हे सत रुपा
अमर अटल अजया हो तुम
तुम परम शांति धवल जया हो
है अंत नहीं  पर्याय तुम्हारा
तुम नव अध्याय की द्योतक हो
हे दीपशिखा की सूत्रधार
मृत्यु तुम स्वयं अप्सरा हो

हे विश्वमोहिनी हे जीव प्रिया
हे पतित पावनी हे सदया
तुम मोही-निर्मोही सब को मोह कर
माया पाश से मुक्ति देती हो
चित-परिचित का बंध छुड़ा
उस चित् से चित् को मिलाती हो
हे दीपशिखा की सूत्रधार
मृत्यु तुम स्वयं अप्सरा हो

हे चित् धरणी हे मंगल,करुणा
हे परम हठी हे श्वेत प्रभा
दु:ख,सुख,चिंता की चिता जलाकर
परमानंद का दान दे देती हो
यह जीवन यदि संघर्ष है तो
मृत्युलोक की स्वामिनी तुम संधि अवतार ले आती हो
हे दीपशिखा की सूत्रधार
मृत्यु तुम स्वयं अप्सरा हो

#आँचल



हार्दिक आभार सादर नमन 

Friday, 2 August 2019

मैं हरी हो जाऊँ



बिन साज कान्हा धुन छेड़े 
बिन झांझर पग लेवे फेरे
मोहे अधर मुरलिया
सोहे मोर मुकुटिया
सूरतिया पर जाऊँ बलिहारी
प्रीत के सुख गीत पर
मयूरा संग रीझ कर
मैं श्याम रिझाऊँ
मैं श्याम रिझाऊँ
हास ठिठोली सखीयन की ना भाए
गुण गावत टोली हरी की लुभाए
छोड़ के सुख छैया
तोड़ रीत पैजनिया
जोगनिया चूनर रंग डाली
नाम प्रीत का जपकर
सम ज्योति सी जलकर
मैं अलख जगाऊँ
मैं अलख जगाऊँ
हरी प्रेम का गुड़ मन चाखे
रोम रोम रंजन हुआ लागे
लगी सागर हरी अँखीयाँ
मन लगाए डुबकियां
हर डुबकी अर्पण गुण दोष कर डाली
तब लोक लाज को तज कर
समर्पण की चोटी चढ़कर
मैं हरी हो जाऊँ
मैं हरी हो जाऊँ
#आँचल