एक छत के नीचे,
चार दीवारों के बीच,
माता-पिता की दी हुई
ज़मीन पर खड़ी मैं
कुछ खिड़कियों के सहारे
थोड़ा-सा ही सही
इस संसार को
देखने-समझने को उत्सुक बाहर झाँक रही हूँ।
आह! यह क्या देख रही हूँ?
कहीं कोई शोर करके सो रहा है
तो कहीं कोई मौन रो रहा है,
कोई काट कर अपना ही पेट
अपनी 'भूख' मिटा रहा है,
कोई नंगे पाँव ही दौड़ चला
छालों को करा के चुप,
कोई वातानुकूलित गाड़ी में बैठा
कहता है 'उफ़',
यह कैसा है बाज़ार सजा?
यहाँ सब कुछ तो बिक रहा!
धर्म से ईमान तक,
देह से कमान तक!
ओह! यह कैसा
भयानक वीभत्स मंज़र है?
क्या यह कोई विकसित
आधुनिक जंगल है?
थोड़ा ही सही
देखकर यह दृश्य
कुछ विचलित हो गई हूँ।
परब्रह्म के समक्ष
करबद्ध संकल्प ले रही हूँ -
" एक दिन अपने ज्ञान
और अनुभव की वह ज़मीन
विकसित करूँगी जहाँ खड़ी
होकर इस शोक - विलाप के
मंज़र को सुख-संतोष में परिणित करूँगी।"
बस इस संकल्पपूर्ति हेतु
एक बार यह दरवाज़ा खोल लूँ
और इस बार थोड़ा-सा नहीं,
देख-समझ लूँ यह पूरा संसार,
ताकि कोई टोक न सके
कि तुमने देखा नहीं अभी
पूरा संसार।
यह तो हुई कुछ बरस पूर्व की बात,
आज तो कुछ बदले-से हैं हालात।
तब नादान थी कुछ,
आज थोड़ी सयानी जो हुई हूँ
है जो बाधा संकल्प में
उसे भाँप रही हूँ।
कहीं ठिठक न जाएँ ये पाँव मेरे
संबंधों के मोह में,
या कहीं बेड़ी न डाल दे
मेरे पाँवों में यह समाज,
कहीं कोई स्वयं यह दरवाज़ा
खोलकर न आ जाए
और पहनाकर लाल चूड़ियाँ
अपनी चौखट पार करवाए।
उफ़! तब क्या करूँगी मैं?
क्या मान लूँगी उस घर को
अपना सीमित, सुखद संसार?
और क्या बन जाऊँगी
अस्तित्वहीन-सी मैं एक ज़िंदा लाश?
और यहाँ इस दरवाज़े के भीतर
यूँ ही छूट जाएगा
मेरे अस्तित्व का कारण
मेरा 'संकल्प'!
#आँचल