Tuesday, 11 February 2020

धूल हूँ जो उड़ चली हूँ



धूल हूँ जो उड़ चली हूँ राह पाने को,
ढूँढ़ती हूँ गली-गली में साँवरे मन को।-2

लक्ष्य को जो विलग हुई हूँ घने तरूवर से,
भटकती जो अटक गयी कांटो की झाड़ी में,
गति के झोंकों से बढ़ूँ,वीरान पाती हूँ,
माटी में जाकर मिलूँ,मैं माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़ ......

क्षुब्ध-सी मैं ढुलक रहीं हूँ,लुब्ध कंकड़ हूँ,
ढल रही हूँ,घिस रही हूँ विकार अंतर के,
अचल से होकर पृथक मैं सूक्ष्म-सा कण हूँ,
माटी में जाकर मिलूँ मैं माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़ ........

शून्य हूँ,निस्पंद हूँ,मैं मधुर स्पंदन हूँ,
अंत का आनंद हूँ,आधार क्रंदन हूँ,
परिणय की वेदि पे बैठी राख होती हूँ,
माटी से जाकर मिलूँ मैं,माटी का कण हूँ।

धूल हूँ जो उड़.........

धूल हूँ जो उड़ चली हूँ राह पाने को,
ढूँढ़ती गली गली में साँवरे मन को।

#आँचल